साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक :विरक्तता

By: May 31st, 2020 12:05 am

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-4

अतिथि संपादक: डा. हेमराज कौशिक

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की चौथी किस्त…

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

डा. मीनाक्षी एफ. पॉल

 मो.-9418003747

साहित्य में रुचि वैश्विक स्तर पर कम होती प्रतीत हो रही है और इसका प्रतिबिंब हिमाचल प्रदेश में भी दिख रहा है। यद्यपि वर्तमान काल में इंटरनेट-मोबाइल के कारण सामान्य पाठन बढ़ा है, तथापि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वालों की संख्या कम हो रही है और साहित्य के पाठक आम समाज में निरंतर घट रहे हैं। पत्रकारिता में भी साहित्य लुप्तप्राय है। आम बातचीत में साहित्यिक संदर्भ न के बराबर बचे हैं। साहित्य का यूं क्षरण होना गंभीर चिंतन का विषय है क्योंकि साहित्य विहीन समाज सभ्यता की विपरीत दिशा में अग्रसर होता है। चहुं ओर इस विमुखता से उभरे परिवेश की सुगबुगाहट स्पष्ट होने भी लगी है। साहित्य एवं कला मानवता की निकटस्थ अभिव्यक्तियां हैं। सदियों से साहित्य समाज को चेताने, आनंदित करने और उसका मार्गदर्शन करने में प्रवृत्त रहा है।

सौंदर्यात्मक संसार में जीवन का बोध कराने और सत्य को स्थापित करने में साहित्य की अमूल्य भूमिका है। साहित्य संवेदनशीलता और वैचारिकी को गहन करने का माध्यम है जिससे इसे लिखने-पढ़ने वाले व्यक्ति स्वयं की पहचान खोजते हुए सर्वव्यापी की ओर उन्मुख होते हैं। साहित्य से न केवल व्यक्तिगत तनाव कम होता है, अपितु समाज में परानुभूति एवं सहिष्णुता का संचार भी होता है, पूर्वग्रह दूर होते हैं और सामाजिक समरसता बढ़ती है। साहित्य किसी भी संस्कृति का, बल्कि इंसानी सभ्यता का सांस्कृतिक कोष भी है जो वारिसी से भविष्य तक को संजोए रखता है। रचनात्मकता की नींव पर खड़ा साहित्य विध्वंसकारी शक्तियों का प्रतिषेधक है। यह सब होने पर भी साहित्य का आम जीवन से विलुप्त होना शोचनीय ही नहीं, त्रासद है। बीसवीं सदी में साहित्य और मानविकी के प्रति विरक्तता के मुख्य कारण वैश्वीकरण, बाजारवाद, तकनीकीकरण, व्यावसायिकता और व्यक्तिवादिता रहे हैं। इक्कीसवीं सदी डिजिटल युग है। इंटरनेट और नित नवीन होती प्रौद्योगिकी की आपाधापी में साहित्य, चाहे शास्त्रीय हो या समकालीन, पीछे छूट गया प्रतीत होता है।

पाठन अब व्हाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइटों पर ही सांस ले रहा है या फिर सामान्य ज्ञान के संकलनों को रटते हुए नौजवानों के अधरों पर। विडंबना ही कहिए कि वेद-पुराण के देश में पठन-पाठन अब केवल वृत्तिक योग्यता संबंधी सामग्री, उथली रोमांचकता और रोजगारपरक तथ्य और आंकड़े भर रह गए हैं। आज के प्रतियोगिक संदर्भ में  कालजयी रचनाओं को असंगत एवं अनुपयोगी की श्रेणी में रखा गया है। कामायनी, यामा, रश्मिरथी, आधे-अधूरे, जूठन सरीखे साहित्य क्षीर के अनेकों रत्न पाठकों के अभाव में धूल फांक रहे हैं। इस पर बहुधा समकालीन साहित्यकारों का समालोकी और समाजोन्मुखी न होना भी दिन-प्रतिदिन साहित्य से विमुखता का एक प्रमुख कारण है। अध्ययन एवं अध्यापन के संदर्भ में साहित्य को उपयोगितावाद ने अपदस्थ किया है और रोजगार की संभावनाएं तलाशते विद्यार्थियों में वाणिज्य और व्यवसाय प्रबंधन जैसे विषयों के प्रति रुझान होना स्वाभाविक है। प्रदेश के अधिकांश शिक्षण संस्थानों में साहित्य, चाहे वह हिंदी हो या अंग्रेजी, विद्यार्थियों का प्रायः अंतिम चुनाव होता है।

यदि कहीं प्रवेश न मिले तो ही मजबूरी में वे साहित्य का दामन थामते हैं। क्लांत पाठ्यक्रम और परीक्षा में दूसरे विषयों से कम अंक आना भी विद्यार्थियों को हतोत्साहित करता है। गांव की चौपाल और शहर के चौक से तो साहित्य पहले ही निष्कासित है, पर शिक्षण संस्थानों में भी वह हाशिए पर खड़ा जान पड़ता है। समय की मांग के नाम पर साहित्य के पाठ्यक्रम को ही भाषा कौशल के कोर्स में तबदील कर दिया गया है और उसमें साहित्य दोयम पायदान पर मुश्किल से टिका है। साहित्य के बिना भाषा में प्रवीण होना टेढ़ी खीर जान पड़ता है। साहित्य को आत्मसात करने के लिए काव्यशास्त्र तो लगभग गायब ही है। अभिनवगुप्त, मम्मट, उद्भट, लोंजाइनस, एलिअट, देरिदा आदि से साहित्य के विद्यार्थी भी अपरिचित से हैं। लोक साहित्य तो आरंभ से ही शिक्षा के गलियारों से अदृश्य रहा है। साहित्य के अधिकांश पाठ्यक्रमों में लोक की उपस्थिति दर्ज ही नहीं हुई। इसके लिए केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रमों को प्रांतीय परिप्रेक्ष्य में अनुपूरण करना नितांत आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड ने ‘हिमाचल की लोक संस्कृति और योग’ के नाम से कक्षा छह से आठ तक तीन पुस्तकें सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत तैयार की हैं। यह एक सार्थक प्रयास है जिसे आगे बढ़ाया और उत्कृष्ट किया जाना चाहिए। यदि हम अपने प्रदेश के साहित्य को दूसरों से कम आंकने की शंका से उबर सकें तो उच्च शिक्षा में प्रदेश के साहित्य और लोक साहित्य का समावेश सुगमता से हो सकता है। शिक्षा शास्त्र और नीतियां भी इस बात पर बल देती हैं कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। क्यों न हम हिमाचल की बोलियों में पहेलियों, गीतों, कहानियों से विद्या का श्रीगणेश करें। इससे बच्चों को अपनी जड़ों से उपजे आचार-विचारों को सहजता से जानने का और फिर अपने ज्ञान, बुद्धिमता और वातावरण को स्वाभाविक विस्तार देने का सहज रास्ता मिलेगा। भर्तृहरि की मान्यता कि ‘साहित्यसंगीतकला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ्विषाणहीन’ आज भी सामयिक है।

साहित्य के अभाव में विद्या, सुभावना, शील एवं मानवीय संवेदनाहीन समाज की परिकल्पना भयावह है। इसके प्रति उदासीनता व्यक्तिगत तथा सामाजिक पतन का मार्ग है। स्वहित एवं स्वसंरक्षण के रोजमर्रा के उपक्रमों से इतर साहित्य निरंतर स्वयं को संपूर्णता से विकसित करने का श्रेष्ठ उपाय है। इस संदर्भ में साहित्य में अभिरुचि को बढ़ावा देना उचित ही नहीं, आवश्यक भी है।


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