हम मुर्दापरस्त हिमाचल वाले

By: May 31st, 2020 12:04 am

लोकगायक स्व. प्रताप चंद शर्मा और

डा. चिरंजीत परमार,  मो.-9418181323

संस्मरण

साहिर लुधियानवी द्वारा लिखे फिल्म प्यासा के एक प्रसिद्ध गीत ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ की एक पंक्ति है-‘ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की।’ यह बात सौ फीसदी सच है। ऐसा ही होता है। इस सच्चाई का हिमाचल प्रदेश का एक उदाहरण दूंगा। हिमाचल में कांगड़ी बोली के एक बहुत ही लोकप्रिय लोकगायक हुए हैं प्रताप चंद शर्मा। वह किसी जमाने में प्रदेश के स्टार लोक गायक हुआ करते थे और अपने कार्यक्रमों में खूब तालियां बटोरा करते थे। उनके गाए गीत आकाशवाणी शिमला से भी खूब बजा करते थे। वैसे वह बहुत साधारण से व्यक्ति थे और शायद बहुत पढे़ भी नहीं थे, पर आवाज और प्रतिभा के धनी थे। वह अपने गीत स्वयं ही लिखा करते थे और उन्हें खुद ही संगीतबद्ध भी किया किया करते थे। उनका गाया एक गीत ‘जीणा कांगड़े दा’ बहुत ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय रहा है। वह जनसंपर्क विभाग कांगड़ा से संबद्ध रहे। मैं 1968-69 में धर्मशाला में हार्टीकल्चर डिवेलपमेंट ऑफिसर हुआ करता था। हमारे दफ्तर के साथ वाली इमारत में डीपीआरओ का दफ्तर हुआ करता था। उस दफ्तर में प्रो. चंद्रवरकर (अब स्वर्गीय) मेरे मित्र हुआ करते थे और वहां मेरा अकसर बैठना होता था। वहां कई बार प्रताप चंद जी से भी मुलाकात होती रहती थी। मैं इसी ख्याल में था कि प्रताप चंद जनसंपर्क विभाग के स्थायी मुलाजिम हैं। 43 वर्ष बाद फरवरी 2013 में प्रताप चंद जी से कांगड़ा के टांडा में अचानक मुलाकात हो गई। उस दिन मेडिकल कालेज के सभागार में दिव्य हिमाचल का वार्षिक सम्मान समारोह था। समारोह में प्रताप चंद जी को उस वर्ष का ‘हिमाचली ऑफ  दि ईयर’ सम्मान मिलने जा रहा था। दिव्य हिमाचल के इस पुरस्कार में अन्य पुरस्कारों की तरह केवल मोमेंटो ही नहीं होते, बल्कि 50000 रुपए की नकद राशि भी होती है। शर्मा जी को उनको परिवार वाले यह पुरस्कार ग्रहण करने के लिए वहां जीप में लाए थे। इसी समारोह में मुझे भी उस वर्ष का ‘साइंटिस्ट ऑफ  दि ईयर’ का पुरस्कार मिलना था और मैं भी परिवार सहित मंडी से आया था। मैंने उनको पहचान लिया और इतने वर्षों बाद उनको देखकर बहुत खुशी हुई। मैंने उनसे बात की और उनको धर्मशाला के दिन याद दिलाए। मुझे वह जीवन के उस काल में सुखी नहीं लगे। आर्थिक संकट में भी लगे। असल में मुझे इस बात का उसी दिन पता लगा कि वे जनसंपर्क विभाग के स्थायी कर्मचारी नहीं थे, बल्कि कैजुअल आर्टिस्ट थे। बहुत ही दुखी मन से कहने लगे कि साहब गाने में वाहवाही तो खूब मिली, पर पैसा कोई नहीं मिला। बुढ़ापे में निखट्टू बूढ़ों को परिवार वालों से कितना सम्मान मिलता है, यह हम सभी जानते हैं। उस दिन के समारोह में उन्होंने अपना प्रसिद्ध गीत ‘ठंडी-ठंडी हवा जे चलदी, हिलदे चिल्लां दे डालू, जीणा कांगड़े दा’ भी गाया, जिस पर सारा हॉल तालियों से गूंज गया। मेरे लिए यह बहुत ही हृदयस्पर्शी दृश्य था। उन हालात में दिव्य हिमाचल द्वारा दिए गए इन 50000 रुपयों से उनको अवश्य ही थोड़ा सहारा मिला होगा। 20 नवंबर 2018 को 90 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। सभी अखबारों में यह खबर छपी। प्रदेश के गवर्नर आचार्य देवव्रत और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने श्रद्धांजलियां दीं। तब सरकार को भी उनके योगदान की याद आई और उनको एक लाख रुपए का ‘मरणोपरांत’ पुरस्कार प्रदान किया गया। काश, उनके जीवन काल में भी उनकी कोई आर्थिक सहायता हो पाती। ऐसे में मन में सवाल उठता है कि क्या हम सचमुच ही मुर्दापरस्त नहीं हैं?


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