हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकार

By: May 24th, 2020 12:05 am

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-3

अतिथि संपादक : डा. हेमराज कौशिक

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की तीसरी किस्त…

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’

 मो.-9418080088

साहित्य सृजन का प्रयोजन तो वस्तुतः यश अथवा धन प्राप्ति होता है, जिसमें निहित अमरत्व की भावना भी रहती है। यह अलग बात है कि अनेक विचारधाराओं के लोग इसे अपने ढंग से प्रासंगिक बनाने के लिए वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा का जामा ओढ़ा देते हैं। तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक रचना मानव जाति के मंगल एवं कल्याण के लिए लिखी जाती है। उसमें सामाजिक विसंगतियां या दबित-दमित आक्रोश का विस्फोट रचना को प्रभावशाली एवं अर्थपूर्ण बनाता है। यह सब विधाओं के संदर्भ में चरितार्थ होता है। अब यह हिंदी साहित्य की मुख्यधारा किस बला का नाम है? यह टेढ़ा प्रश्न है। भारत में 29 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं। हिंदी साहित्य लगभग सभी राज्यों में रचा जाता है, परंतु विडंबना यह है कि आठ-नौ प्रदेशों, जिनकी मातृभाषा हिंदी मानी जाती है, में रचित हिंदी साहित्य को मुख्यधाराई साहित्य माना जाता है, जो सरासर गलत एवं अवैज्ञानिक है। जहां तक हिमाचल  की बात है, एक तो यह हिंदी भाषी प्रांत है ही नहीं, परंतु  जब उत्साह में आकर सरकार ने हिंदी को प्रदेश की राजकाज की भाषा स्वीकार कर लिया तो यह हिंदी भाषी प्रदेश बन गया, भले ही अब यहां के लेखक हाय-तौबा मचाते रहें कि हम हिमाचली या पहाड़ी भाषी लोग हैं।

जहां तक हिंदी साहित्य सृजन की बात है, हिमाचल प्रदेश के साहित्यकार किसी से कम नहीं। हिंदी प्रदेशों में जब से रचनाकार लिख रहे हैं, तभी से उनके समानांतर हिमाचल में सृजनात्मक कार्य होता रहा है। परंतु हिंदी भाषी प्रदेशों के विद्वान साहित्येतिहासकार कहते हैं कि हम हिमाचल की साहित्यिक मेधा को मानते ही नहीं। इसका प्रमाण यह है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. रामकुमार वर्मा, विजयेंद्र स्नातक, डा. नागेंद्र, डा. रामप्रसाद मिश्र, डा. गणपतिचंद्र गुप्त, डा. बच्चन सिंह प्रभृति साहित्येतिहासकारों ने हिमाचली साहित्यकारों का कोई उल्लेख नहीं किया है। यह जुदा बात है कि काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्वारा प्रकाशित हिंदी साहित्य के बृहत इतिहास के सोलहवें खंड में हरि प्रसाद सुमन, डा. शमी शर्मा आदि का नाम सामग्री संकलन में सहायक रिसोर्स पर्सन्ज के रूप में जरूर आया है। मैंने डा. आशु फुल्ल के सहयोग से लिखे ‘हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास’ में  हिमाचल के सत्तर-पचहत्तर सृजनकर्मियों के योगदान को पहली बार इस ग्रंथ में मुख्यधारा में रेखांकित किया है। पर अधिकांश साहित्यकार इस गं्रथ में अपना नाम ढूंढते हैं और न मिलने पर चुपचाप किताब को उपेक्षा से रख देते हैं।

मैं उम्मीद करता था कि जिस प्रकार सन् 1980 में मैंने ‘हिमाचल के हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखा था, उस पर प्रतिक्रियाओं एवं आलोचनाओं की जैसी बाढ़ आ गई थी, वैसा ही कुछ इस बार भी होता, लेकिन उम्मीद जितनी हलचल नहीं हुई। अभी पीछे हिंदी के उत्साही लेखक एवं प्राध्यापक डा. इंद्र सिंह ठाकुर ने जरूर कमेंट किया कि हिमाचल के हर हिंदी प्रेमी को यह ग्रंथ पढ़ना चाहिए। इस इतिहास के लेखन में दस वर्ष लगे और छपने में कोई आठ साल। इससे आप अनुमान लगा लें कि मुख्यधारा में हम कहां हैं और जहां होना चाहिए वहां क्यों नहीं?

मेरा विनम्र सुझाव है कि प्रदेश के विद्वानों को ऐसे और ग्रंथ लिखने चाहिएं, तभी कहीं जाकर हिंदी लेखन की मुख्यधारा हमें पहचानेगी। अपनी-अपनी ढफली बजाने की अपेक्षा सामूहिक ढफली बजाने से हमारी आवाज उन साहित्येतिहास लेखकों तक जरूर पहुंचेगी जो देखकर भी हिमाचल में हो रहे लेखन को न देखने का नाटक करते हैं।  डा. हेमराज कौशिक ने उदारतापूर्वक जो नाम अपने बीज लेख में गिनवाए हैं, वे तथा उतने ही और लेखकों का मुख्यधारा में स्थान होना चाहिए, यह सब स्वीकार करेंगे। आज केवल चंद्रधर शर्मा गुलेरी या यशपाल का नाम ले देने मात्र से तो बात नहीं बनेगी। आज यह साहित्यिक बहस का विषय होना चाहिए कि किस लेखक को किस आधार पर देश की मुख्यधारा में सम्मिलित करना चाहिए। इस निर्धारण में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के शोध छात्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

दोनों यूनिवर्सिटीज में हिंदी के अध्यापक युवा हैं। वे भी इस दिशा में अपना योगदान दे सकते हैं। इस सबके अलावा हिमाचल के राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापनरत हिंदी के प्राध्यापक  भी  शोध छात्रों को सही दिशा में प्रेरित कर सकते हैं, अन्यथा यशपाल, महादेवी वर्मा, मुंशी प्रेमचंद, उग्र, प्रसाद, पंत आदि के साहित्य पर ही पिष्टपेषण होता रहेगा। मैं समझता हूं कि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा तब तक अधूरी मानी जाएगी, जब तक हिमाचल के उन रचनाकारों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता जो सन् 1950-55 से निरंतर राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। प्रदेश के कहानीकार इसमें अग्रणी रहे हैं। अन्य विधाओं में भी बहुत लोगों ने नाम कमाया है, यथा व्यंग्य में विशेष रूप से। हिमाचल के महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के नाम एवं उनका मूल्यांकन मैंने हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास में कर दिया है। उनके उल्लेख के बिना हिंदी की मुख्यधारा पंगु ही रहेगी।


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