हिमाचल में साहित्य से किनारा करते युवा : कारण एवं समाधान

By: May 31st, 2020 12:05 am

विक्रम गथानिया,  मो.-7018366915

हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में संयुक्त परिवारों का हृस एक बड़ा कारण है कि आज के अधिकांश  बच्चे अपने दादा-दादी के संपर्क में नहीं रहते हैं। कुछ बच्चे पढ़ाई के लिए कस्बों या शहरों का रुख किए हुए हैं। उनका बचपन किराए के कमरों में बीत रहा है। इसी कारण से वे दादा-दादी से अर्जित होने वाले साहित्यिक और सांस्कृतिक ज्ञान से आवश्यक रूप से वंचित हैं। यही बच्चे युवा होकर स्वाभाविक रूप से अगर साहित्य के प्रति अरुचि रखेंगे, तो इसमें किसी प्रकार की कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। दूसरा कारण इसमें यह भी है कि यही बच्चे पढ़ाई के एक बहुत बड़े दबाव में अपना बचपन गुजारते हैं।

आजकल के समय में माता-पिता विज्ञान के विषयों को उन्हें पढ़वाना आवश्यक समझते हैं। वे उन्हें उनके भविष्य के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग दिखाई पड़ते हैं। ऐसे बच्चे जिनकी साहित्य के प्रति रुचि हो सकती थी, वे पढ़ाई के अतिरिक्त दबाव के कारण साहित्य से विमुखता के शिकार हो जाते हैं। आजकल के समय में कुछ युवा ऐसे भी हैं जिनका ज्यादातर समय टेलीविजन तथा मोबाइल पर बीतता है। वहां से अगर वे समय बचाते भी हैं तो वे उसे खेलों में गुजारना पसंद करते हैं। उन्हें फिल्मों का संगीत सुनना पसंद है। उनकी रुचि भी उस फिल्मी संगीत में है जिसमें साहित्यिकता का अभाव है। इंटरनेट से उनका  सकारात्मक जुड़ाव कम, बल्कि नकारात्मक अधिक है। सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता अत्यधिक है। ऐसे में उनका साहित्य से किनारा करना स्वाभाविक ही है।

युवाओं की साहित्य से विमुखता के लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था भी दोषी है। इस शिक्षा व्यवस्था ने हमारे समाज की मानसिकता को इस कदर प्रभावित किया है कि जिसने किसी के भी साहित्यिक होने की प्रवृत्ति को घोंटने का काम किया है। कठिन विद्यालयी पाठ्यक्रमों से विद्यार्थियों में साहित्यिकता भरने का काम सार्थक रूप से नहीं हो पा रहा है। राष्ट्रभाषा हिंदी के साहित्य के प्रति विद्यार्थियों की जिज्ञासा बढ़े, इसके लिए दसवीं के बाद की हमारी शिक्षा व्यवस्था अजीब तरह से समस्याग्रस्त है। दसवीं कक्षा के बाद जो विद्यार्थी अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं, अगर वे पढ़ने में अच्छे हुए तो वे या तो विज्ञान विषय चुनते हैं या वाणिज्य। विज्ञान या  वाणिज्य संकायों के लिए हिंदी विषय अनिवार्य नहीं है। इस तरह से जिन विद्यार्थियों में दसवीं कक्षा तक साहित्य पढ़ते हुए साहित्य के प्रति जो अनुराग विकसित हुआ होता है, उसके लिए दसवीं कक्षा के बाद विकसित होने के लिए विराम लग जाता है। दूसरे इन विद्यार्थियों के अलावा जो विद्यार्थी कला संकाय चुनते हैं, उनमें से कुछ भले ही पढ़ाई में उतने अच्छे हों भी, परंतु उन्हें उतना सम्मान नहीं मिलता। समाज में यह धारणा भी बन गई है कि विज्ञान और वाणिज्य संकाय के विद्यार्थियों का भविष्य कला संकाय चुनने वाले विद्यार्थियों की अपेक्षा ज्यादा उज्ज्वल है।

यहां यह बताना भी तर्कसंगत है कि दसवीं के बाद कला संकाय में हिंदी आवश्यक विषय के रूप में नहीं, बल्कि वहां भी किसी दूसरे विषय के साथ विकल्प के रूप में चुनना पड़ता है। अब आप समझ सकते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने हमारी राष्ट्रीय भाषा के साथ एक उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया हुआ है जिस कारण से हमारी युवा पीढ़ी साहित्य से विमुख हुई है। हमारे आसपास जिस भी प्रकार का माहौल हो, हमारी जैसी भी परिस्थितियां हों, मानव हृदय में खासकर युवा हृदयों में कविता पढ़ने, लिखने या सुनने की या कहानी पढ़ने, लिखने या सुनने की प्रवृत्ति कभी भी रहती ही है। इसके लिए इतना करना चाहिए कि साहित्यिक संस्थाएं अपनी गतिविधियों में  ज्यादा से ज्यादा युवाओं को सम्मिलित करें। आज का युवा भले ही इंटरनेट की गिरफ्त में है, उसके लिए कविता, कहानी की पुस्तकें भले ही इंटरनेट पर उपलब्ध हो जाती हों, परंतु जो मजा पुस्तक को हाथ में पकड़कर पढ़ने में है, वह मजा इंटरनेट पर तो नहीं मिल सकता है।

पुस्तक का संबंध पाठक से कभी भी बना रहेगा। इसी बात को ध्यान में रखते हुए युवाओं को पुस्तकालयों की ओर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रत्येक गांव का अपना पुस्तकालय होना पुस्तक संस्कृति को विकसित करेगा। शिक्षा व्यवस्था में किसी भी भाषा के खासकर हिंदी भाषा के साहित्य को स्नातक स्तर तक जरूरी बनाया जाना चाहिए। हिंदी का साहित्य काफी समृद्ध है। इससे समूचा समाज लाभान्वित हो सकेगा। समाज में समरसता का भाव विकसित होगा। साहित्य की पुस्तकें सस्ती हों। पेपरबैक संस्करण में सस्ती पुस्तकें प्रकाशित होने के कारण पुस्तकों का प्रसार सस्ता पड़ता है। इस तरह पुस्तकों की पहुंच आम पाठक तक हो जाती है। परंतु कुछ प्रकाशक पेपरबैक पुस्तकों को महंगे दामों पर बेच कर सस्ती पुस्तकों की इस अवधारणा पर कुठाराघात करते हैं जो सही नहीं है।


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