गुरुभक्ति की परीक्षा

By: Jun 25th, 2020 11:07 am

श्रीराम शर्मा

प्राचीनकाल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद, शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया। शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है। वेदधर्म मुनि ने शिष्यों से कहा, हे शिष्यो! अब प्रारब्धवश मुझे कोढ़ निकलेगा, मैं अंधा हो जाऊंगा इसलिए काशी में जाकर रहूंगा। है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहकर सेवा करने के लिए तैयार हो? शिष्य पहले तो कहा करते थे, गुरुदेव! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाए, अब सब चुप हो गए। उनमें एक शिष्य खूब गुरु सेवा परायण, गुरुभक्त था। उसने कहा, गुरुदेव! यह दास आपकी सेवा में रहेगा। गुरुदेव, इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा। शिष्य, इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है। वेदधर्म मुनि एवं शिष्य काशी में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और अंधत्व भी आ गया। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। शिष्य के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह रात-दिन गुरु जी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के घावों को साफ करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, भिक्षा मांगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता। गुरुजी डांटते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते, किंतु शिष्य की गुरुसेवा में तत्परता व गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया। काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ शिष्य के समक्ष प्रकट हो गए और बोले, तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। बेटा! कुछ वरदान मांग ले। शिष्य गुरु से आज्ञा लेने गया और बोला, शिवजी वरदान देना चाहते हैं आप आज्ञा दें, तो वरदान मांग लूं कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाए। गुरु ने डांटा वरदान इसलिए मांगता है कि मैं अच्छा हो जाऊं और सेवा से तेरी जान छूटे! अरे मूर्ख! मेरा कर्म कभी न कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा। शिष्य ने शिवजी को वरदान के लिए मना कर दिया। शिवजी आश्चर्यचकित हो गए कि कैसा निष्ठावान शिष्य है। शिवजी गए विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तांत कहा। विष्णु भी संतुष्ट हो शिष्य के पास वरदान देने प्रकट हुए। शिष्य ने कहा, प्रभु मुझे कुछ नहीं  चाहिए। भगवान ने आग्रह किया तो बोला, आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे। भगवान विष्णु ने शिष्य को गले लगा लिया। शिष्य ने जाकर देखा, तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अंधापन! शिवस्वरूप सद्गुरु ने शिष्य को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे बोले, वत्स! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा। पुत्र! तुम धन्य हो, तुम सच्चिदानंद स्वरूप हो। गुरु के संतोष से शिष्य गुरु तत्त्व में जग गया, गुरु स्वरूप हो गया।


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