पाठ्यक्रम में साहित्य की उपयुक्तता

By: Jun 14th, 2020 12:05 am

डा. रणधीर सिंह चौवाल्टा, मो.- 9418463838

पाठ्यक्रम शिक्षण व्यवस्था का वह अनिवार्य हिस्सा है जिसके इर्द-गिर्द पूरे अकादमिक सत्र में  पठन-पाठन की गतिविधियां घूमती हैं और ये गतिविधियां ही हमारे भविष्य के जीवन के व्यक्तित्व के सोपानों को तय करती हैं। पाठ्यक्रम के बिना हम शिक्षा से प्राप्त होने वाले अधिगम के किसी भी स्तर को प्राप्त नहीं कर सकते। अध्ययन-अध्यापन के इस क्रम में शिक्षक और शिक्षार्थी को एक-दूसरे से कई आशाएं एवं आकांक्षाएं होती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में विद्यार्थी के चहुंमुखी विकास को केंद्र में रखा जाए और किसी भी सूरत में उसकी अधिगम क्षमता व जीवन कौशल को नजरअंदाज न किया जाए।

पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा कितनी हो और पाठ्यक्रम में साहित्य की उपयुक्तता कितनी है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। साहित्य में निहित धारणाएं अद्भुत होती हैं जो मानवीय मूल्यों, आस्थाओं और सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं। हम सब जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। अब आवश्यकता इस बात की है कि हमें उस दर्पण में अपने आप को ढूंढना और पहचानना है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि डिजिटल दुनिया के इस दौर में पाठ्यक्रम में साहित्य का प्रभाव कम तो नहीं हो रहा है। कहीं यह हशिए पर तो नहीं चला गया है। यह तो स्पष्ट है कि साहित्य का विद्यार्थियों के मानस पटल पर सकारात्मक और अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके अध्ययन से ही विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास, संप्रेषण कौशल, नेतृत्व कौशल एवं भाषा का समुचित विकास संभव है। ऐसे में पाठ्यक्रम निर्माण करने वाली समितियों के साथ-साथ पाठ्य पुस्तकों को लिखने वालों की कदम-कदम पर यह जिम्मेवारी ज्यादा बन जाती है कि पाठ्यक्रम में बच्चों के मानसिक स्तर का ध्यान रखते हुए  साहित्य को भी शामिल किया जाए।

पाठ्यक्रम में साहित्य से परिचय करवाने का तात्पर्य उसे पढ़ने मात्र से नहीं होना चाहिए बल्कि उसके माध्यम से सही अर्थों में अपनी संस्कृति, परंपराओं, सामाजिक मूल्यों, राष्ट्रीय चेतना  इत्यादि का संवर्धन व विकास होना चाहिए। हमारा देश विविधताओं से भरा पड़ा है, इसलिए पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा समावेशी होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में साहित्य का समावेश इस ढंग से हो कि वह विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और जातियों में विभक्त समुदायों के बीच समरसता पैदा कर सके। इस सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम में साहित्य की विभिन्न विधाआें- उपन्यास, कविता, कथाओं, लघु कथाओं, नाटकों व निबंध के अतिरिक्त लोक साहित्य एवं बाल साहित्य के रूप में सम्मिलित किया जा सकता है। अब इस सच को हमें खुले मन से स्वीकार कर लेना चाहिए कि प्रौद्योगिकी के इस दौर में सिर्फ  साहित्य ही हमें संवेदनशील बना सकता है। ऐसे में निःसंदेह पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा न्यायसंगत तथा मानवीय दृष्टिकोण को प्रदर्शित एवं लक्षित करने वाली होनी चाहिए। इसके लिए  हर स्तर पर बनी पाठ्यक्रम निर्माण समिति अहम भूमिका निभा सकती है क्योंकि इसी के पास पाठ्यक्रम निर्माण का अधिकार होता है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एनसीईआरटी, राज्य स्तर पर एससीईआरटी, डाइट्स, बोर्ड और विश्वविद्यालय स्तर पर बोर्ड आफ  स्टडीज हैं। इन संस्थाओं की पाठ्यक्रम सामग्री के चयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में उन्हें अपने अधिकार को पहचानना अनिवार्य है।

इसके साथ-साथ उनकी क्षमताओं का विकास करना, किसी भी कक्षा के पाठ्यक्रम निर्माण से पहले राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की समझ व जानकारी होना अति आवश्यक है। समाज और देश के हित में आज यही जरूरी है कि पाठ्यक्रम चाहे किसी भी विषय का हो, पर उसमें मानवीय संवेदीकरण के मुद्दों व मसलों का जिक्र अवश्य हो। इसलिए शिक्षा के उद्देश्य को साधने का एकमात्र तरीका साहित्य को पढ़ना और पढ़ाना भी है। ऐसा होने पर जहां एक ओर भाषा के संवर्धन और विकास के साथ-साथ मानवीय भावनाओं को बचाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर मशीन होते बच्चों को इनसान बनने की ओर अग्रसर भी किया जा सकता है। अतः आज समय की मांग है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के साथ-साथ मेडिकल कालेजों एवं इंजीनियरिंग कालेजों के पाठ्यक्रम में साहित्य को भी एक अनिवार्य विषय के रूप में किसी न किसी रूप में अवश्य रखा जाना चाहिए ताकि मशीनी होते जीवन में मानवीय संवेदनाओं का प्रसार हो और हमारी आने वाली पीढ़ी रोबोट होने से बच सके।


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