विनम्रता और सहजता

By: Jun 25th, 2020 11:12 am

बाबा हरदेव

मनुष्य अपने ही बनाए केंद्र से सारी दुनिया को देखता है, परंतु यह इसके अहंकार का भ्रम है, जबकि वास्तव में व्यक्ति परम केंद्र नहीं है, यह तो जीवन की मांग मात्र है। जैसे सागर की लहर सागर का केवल मात्र एक हिस्सा है। सागर का केंद्र नहीं है, वैसे ही हम जीवन का हिस्सा मात्र हैं, जीवन से पृथक हमारी कोई सत्ता नहीं है। जीवन से भिन्न हमारा कोई होना नहीं है। लेकिन अज्ञानवश ऐसा लगता है कि बस मैं ही हूं। जैसे लहर को लगे कि वह ही सब कुछ है और सोचने लगे कि अन्य लहरें तो उसके ही चक्कर लगाती हैं। चांद उसके लिए उगता है, सूरज उसके लिए ही आता है, सागर केवल उसके लिए ही अस्तित्व में है। मानो जैसे भूल में लहर अपने जीवन के परम केंद्र से अंजान होती है, वैसी ही भूल का शिकार हम हो जाते हैं और यही भूल हमारे दुखों का मूल है। क्योंकि व्यक्ति जब तक अहंकार के भ्रम में ग्रस्त है तब तक यह विनम्रता और सहजता से परिचित नहीं है। अतः इसके लिए आनंद के द्वार नहीं खुल सकते। अतः आध्यात्मिक जगत में अंतरात्मा में गहरी डुबकी लगाना ही विनम्रता और सहजता है। जब मनुष्य अपने जीवन के परम केंद्र को पूर्ण सद्गुरु द्वारा अनुभव कर लेता है और जब मनुष्य अपने भीतर जीवन के मूल को जान लेता है, तब मनुष्य को पता चलता है कि विन्रमता व सहजता क्या है और तब वह जान पाता है कि विन्रमता और सहजता में जीवन व्यतीत करना सरल है। क्योंकि विन्रमता और सहजता मनुष्य का स्वभाव है। उदाहरण के तौर पर गुलाब खिला है, अब कोई कहे कि गुलाब की झाड़ी को कठिनाई हुई होगी सुंदर गुलाब खिलाने में और कांटों के बीच कैसे यह झाड़ी गुलाब खिला पाती है? सच तो यह है कि गुलाब की झाड़ी को कोई कठिनाई नहीं होती। फूल तो ऐसे ही खिलते हैं विन्रमता और सहजता में। जैसे आग जलाती है, जलाना आग की सहज प्रवृत्ति है, स्वभाव है। जैसे आग की लपटें ऊपर की ओर जाती हैं और पानी की घास नीचे की ओर जाती है, यही इन दोनों की प्रवृत्ति है। यह एक अटल सच्चाई है कि जो व्यक्ति पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा अपने अहंकार को जानने लग जाता है, वह अहंकार के भीतर ही इस शक्ति को उपलब्ध कर लेता है। जो विन्रमता और सहजता बन जाती है। इसी प्रकार जो काम को जानने लग जाता है, वो काम के भीतर ही इस शक्ति को प्राप्त कर लेता है, जो राम बन जाती है। जो क्रोध के भीतर इस शक्ति को जानने लग जाता है, वह करुणा बन जाती है, जो अपने लोभ और मोह के भीतर इस शक्ति को हासिल कर लेता है, जो त्याग और दान बन जाती है। उदाहरण के तौर पर जब हम किसी फूल का बीज बोते हैं, तो बीज के ऊपर एक कठोर खोल अथवा छिलका होता है और उसके भीतर बीज के प्राण होते हैं। यह कठोर खोल अथवा छिलका बीज के प्राणों की रक्षा करता है और यदि हम बीज के इस आवरण को नष्ट कर देते हैं, तो बीज पूर्ण रूप से ही नष्ट हो जाता है। वास्तविकता तो यह है कि इस कठोर आवरण के भीतर  जो अत्यंत कोमल प्राण तंतु छिपा होता है यह कठोर आवरण इसकी रक्षा कर रहा  होता है। अब जब हम इसे भूमि में बो देते हैं तब भूमि में यह प्राण तंतु विकसित होने लगता है और कठोर आवरण अपने आप विलीन होने लगता है और प्राण तंतु बाहर निकल आता है और पौधा बन जाता है और तब सुंदर फूल पैदा होने लगता है। इसके दो ही उपाय हैं।


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