चाह बनाम प्यास

By: Jul 18th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

गतांक से आगे…

इसके साथ ही विद्वानों का मानना है कि अध्यात्म में चाह अकसर बाधा बन जाती है। चाह अर्थात वासना इसलिए चाह को समझना और इसकी प्रकृति को पहचानना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए लोग धन को चाहते हैं, पदवी, प्रतिष्ठा और यश को चाहते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग मोक्ष को चाहते हैं, परंतु चाह तो चाह ही है, वह भले ही किसी प्रकार की हो, कोई अंतर नहीं पड़ता।

जैसे किसी की जंजीर लोहे की है और किसी की सोने की, कोई अंतर नहीं पड़ता है, बंधन तो दोनों में है। वास्तव में सोने की जंजीर लोहे की जंजीर से अधिक खतरनाक होती है क्योंकि लोहे की जंजीर को तो छोड़ने का मन होता है, जबकि सोने की जंजीर तो लोग समझते हैं कि आभूषण है। अतः इसे पकड़े रखने की इच्छा उनमें रहती है। इस प्रकार चाह कैसी भी हो यह भटकती है, दुःख का कारण बनती है। उदाहरण के तौर पर हमने कुछ चाहा और जो चाहा वह पूरा नहीं हो सका, तो दुःख तो होगा ही। अतः पूर्ण सद्गुरु की कृपा से जिस दिन व्यक्ति के मन में कोई चाह नहीं रह जाती, उस दिन उसके सारे दुःख विदा हो जाते हैं और उसके मन में न तो कोई अपेक्षा होगी और न कोई विषाद होगा, न जीत की इच्छा होगी और न ही हार का भय होगा अर्थात जब सुख ही नहीं मांगेगे, तो दुःख कैसे होगा।

इस अवस्था में जिज्ञासु को कहीं जाना नहीं है, द्वार (दरवाजे) खुले हैं। प्यास केवल इतना ही करती है कि अपने द्वार खोल देती है। जब द्वार खुले होंगे तो सूर्य की रोशनी अवश्य भीतर आएगी और इसी प्रकार चांद की चांदनी और हवा के झोंके भी भीतर प्रवेश करने में सक्षम होंगे।

हृदय से यह इच्छा जागृत होती है कि संसार में केवल प्यास ही प्यास रह जाए इस छोर से उस छोर तक, क्योंकि कोरे शब्दों से भरी प्रथनाओं का कोई मूल्य नहीं है। भीतर की तड़प, विरह की अग्नि ही एकमात्र यज्ञ है जो करने योग्य है। अतः परमात्मा को पुकारना हो, तो एक ही यज्ञ है कि जिज्ञासु के भीतर प्रभु प्रेम रूपी अग्नि की लपटें उठें और यह लपटें ऐसी उठें कि सभी इच्छाएं जल जाएं तथा एकमात्र यही लपटें ही शेष बचें।

विद्वान कहते हैं कि विरह और प्रभु प्रेम रूपी प्यास की पूर्णता पर ही प्रभु मिलन संभव है। इस संसार में अधिक अभागे तो वह लोग हैं जिनके हृदय में प्रभु प्रेम रूपी प्यास का भाव ही नहीं है और भाग्यशाली वे लोग हैं जिनको प्रभु प्रेम रूपी प्यास का भाव परमात्मा ने दिया है।

जिस जन कउ प्रभु दरस प्यासा,

नानक ता कै बलि बलि जासा।

                       (आदि ग्रंथ 266)

हरि जन के वड़भाग वडेरे,

जिस हरि हरि श्रद्धा हरि प्यास।

हरि हरि नामु मिले तृप्तासहि,

मिलि संगति गुण परगासि।

                     (आदि ग्रंथ 492)

हरि दर्शन को मन लोचदा नानक प्यास मना,

चेति मिलाए सो प्रभु तिस कै पाइ लगा।

                       (आदि ग्रंथ 133)

जब प्यास है, तो सरोवर भी अवश्य होगा, प्यास है तो तृप्ति भी होगी। प्रभु प्यास ही नहीं, तो कैसा सरोवर, कैसी तृप्ति? अतः प्रभु प्यास में डूबना अनिवार्य है क्योंकि प्रभु प्यास ही मंजिल तक पहुंचाती है जबकि चाह केवल भटकाती है। अतः चाह संसार है, प्यास प्रार्थना है।


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