जीवन का विस्मरण

By: Jul 11th, 2020 12:20 am

ओशो

किस संबंध में आपसे बातें करूं, जीवन के संबंध में। शायद यही उचित होगा, क्योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है। यह तथ्य कितना विरोधाभासी है? क्या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो? यह हो सकता है! न केवल हो ही सकता है, बल्कि ऐसा ही है। शायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है। वृक्षों को देखता हूं तो विचार आता है कि क्या उन्हें अपनी जड़ों का पता होगा। पर वृक्ष तो वृक्ष हैं, मनुष्य को ही अपनी जड़ों का पता नहीं। जड़ों का ही पता न हो तो जीवन से संबंध कैसे होगा? जीवन तो जड़ों में है, अदृश्य जड़ों में। दृश्य के प्राण अदृश्य में होते हैं। जीवन से संबंधित होने के लिए जीवन मिल जाना ही पर्याप्त नहीं। वह भूमिका तो है, किंतु वही सब कुछ नहीं। उसमें संभावनाएं तो हैं, लेकिन वही पूर्णता नहीं है। उससे यात्रा तो शुरू हो सकती है, लेकिन उस पर ही ठहरा नहीं जा सकता है। पर कितने ही लोग हैं जो प्रस्थान बिंदु को ही गंतव्य मानकर रुक जाते हैं। शायद अधिकांशतः यही होता है। बहुत ही  कम व्यक्ति हैं, जो प्रस्थान बिंदु में और पहुंचने की मंजिल में भेद करते हों। हृदय की गहराई से और अनुभव की तीव्रता से ही वह ज्ञान आता है, जो व्यक्ति को बदलता है, नया करता है। बुद्धि से नहीं, अनुभव से, अस्तित्व से और स्वयं की सत्ता से यह बोध आना चाहिए कि जन्म और जीवन में भेद है। चलने और पहुंचने में अंतर है। जन्म प्रारंभ है, अंत नहीं। जन्म को ही जीवन मान लिया जाता है। जन्म को जीवन मानने की भूल से ही मृत्यु को स्वयं की परिसमाप्ति मानने की भांति का भी जन्म होता है। वह पहली भूल की ही सहज निष्पत्ति है। वह उसका ही विकास और निष्कर्ष है। जन्म से जो बंधे हैं, वे मृत्यु से भी भयभीत होंगे ही। वह जन्म से बंधे होने की ही दूरगामी प्रतिध्वनि है। वस्तुतः हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन कम और  मृत्यु ही ज्यादा है। शरीर से ऊपर और शरीर से भिन्न, जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह कहने मात्र को ही जीवित है। जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात जिसे स्वयं का होना अनुभव नहीं होता, वह जीवित नहीं है। उसे जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व भी जीवन का अनुभव नहीं होगा, क्योंकि जीवन का अनुभव तो अखंड और अविच्छिन्न है। ऐसे व्यक्ति ने जन्म को ही जीवन मान लिया है। सच तो यही है कि उसने अभी जन्म ही पाया है, जीवन नहीं। जन्म बाह्य घटना है, जीवन आंतरिक। जन्म संसार है, जीवन परमात्मा। जन्म जीवन तो नहीं है, लेकिन जीवन में वह गति का द्वार हो सकता है, लेकिन साधारणतःवह मृत्यु का ही द्वार सिद्ध होता है। उस पर ही छोड़ देने से ऐसा होता है। साधना जन्म को जीवन बना सकती है। मृत्यु विकसित हुआ जन्म ही है। जीवन को खोजो, अन्यथा मृत्यु आपको खोज रही है। वह प्रतिक्षण निकट आती जा रही है। जन्म के बाद प्रतिक्षण उसकी ही विजय का क्षण है। आप कुछ भी करें केवल जीवन में प्रवेश छोड़कर, उसकी विजय सुनिश्चित है। संपत्ति, शक्ति या यश सभी उसके समक्ष निर्जीव छांव की भांति हैं। उसकी मौजूदगी में वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। स्वयं की सत्ता, स्वयं अस्तित्व की अनुभूति ही केवल अमृत है। वही और केवल वही मृत्यु के बाहर है, क्योंकि वह समय के बाहर है। आंखें खोलें और देखें तो चारों ओर मृत्यु दिखाई पड़ेगी। समय में, संसार में मृत्यु ही है, लेकिन समय के संसार के बाहर स्वयं में अमृत भी है। आज के दौर में हर कोई इतना व्यस्त है कि सही और गलत का ज्ञान ही नहीं।


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