मास्को, जैसा मैंने देखा

By: Jul 11th, 2020 12:25 am

– डा. चिरंजीत परमार,

 186/3 जेल रोड, मंडी

विश्व-भ्रमण

मास्को कभी मेरा ड्रीम शहर हुआ करता था। यह 1960-61 की बात है। तब मेरी उम्र 21-22 साल थी और मैं एसएससी का छात्र था। मेरे पिता जी उन दिनों बिलासपुर में कार्यरत थे और पुराने बिलासपुर शहर में रहा करते थे। हमारा मकान सांढू के मैदान में बस स्टैंड के साथ था। नया बिलासपुर अभी बनना ही शुरू हुआ था। जब भी मुझे समय मिलता, मैं बिलासपुर आ जाया करता था। हमारे क्वार्टर के नजदीक ही मियां गजेंद्र सिंह की कोठी थी, जिसमें स्थानीय कम्युनिस्टों का जमावड़ा लगा रहता था। वहां हिमाचल में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक नेता प्रोफेसर कामेश्वर पंडित भी आते रहते थे। मेरा भी उन लोगों में उठना बैठना शुरू हो गया था, जिसके परिणाम स्वरूप मुझ पर इस विचारधारा का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। पास में ही डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी भी थी। वहां कम्युनिज्म पर यशपाल तथा कुछ अन्य लेखकों की पुस्तकें भी पढ़ीं। इस सब का नतीजा यह हुआ कि मैं अपनी ओर से पक्का कम्युनिस्ट बन गया। जब शिमला जाता, तो फे लॉज में ट्रांसपोर्ट वर्करों की यूनियन में रुका करता। रूस और मास्को मेरे लिए तीर्थ स्थान जैसे हो गए थे और वहां की यात्रा करना मेरे बहुत से सपनों में एक हो गया था। यह सिलसिला कुछ वर्षों तक चला। पर बाद में उम्र और अनुभव के साथ विचार बदलते गए। मुझे दो सप्ताह चकोस्लोवाकिया, जब यहां समाजवाद था, बिताने का भी अवसर मिला और वहां के हालात भी देखे। इस तरह धीरे- धीरे कम्युनिज्म या समाजवाद के बारे में मेरे विचार बदलते गए।  1989 में मुझे मास्को जाने का अवसर मिला। यह वह समय था जब वहां कम्युनिज्म था। रूस को तब विश्व के सबसे अधिक शक्तिशाली और समृद्ध देशों में गिना जाता था। पर मैंने जो वहां देखा, उससे मुझे वहां की स्थिति बहुत ही अलग और निराशाजनक नजर आई।  असली बात शुरू करने से पहले मैं यहां ये भी बता दूं कि मैं मास्को कैसे पहुंचा। इस बात का बहुतों को शायद अंदाजा भी न हो कि रूस की आर्थिक स्थिती बिगड़ चुकी थी और उनकी करेंसी रूबल का वास्तविक मूल्य बहुत गिर चुका था, पर वहां की सरकार इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करती थी। रूस की अपनी एयरलाइन ऐरोफ्लोट है। इनके जहाज लगभग सारी दुनिया के लिए चलते हैं। अगर आपको ऐरोफ्लोट का टिकट लेना होता और अगर आप इसके लिए पैसे अमरीकन डॉलरों में देते, तो आपको 10,000 रुपए का टिकट 3000 रुपए  में मिल जाता। यह मैं उस समय यानी 1988 की बात कर रहा हूं। टिकट पर किराया पूरा लिखा होता। ऐरोफ्लोट वालों से मोल भाव भी करना पड़ता था। मुझे स्वीडन जाना था। मेरी पत्नी भी मेरे साथ थी। क्योंकि मैं स्वीडिश यूनिवर्सिटी के बुलावे पर जा रहा था, इसलिए मेरा किराया उनको देना था, पर मेरे पत्नी का किराया मुझे वहन करना था। इसलिए मैंने ऐरोफ्लोट से जाने का निर्णय लिया। ऐरोफ्लोट की सभी उड़ाने मास्को होकर जाती हैं। इसलिए हमें मास्को होकर जाना और वापस आना था। हमने वापसी पर मास्को घूमने का निर्णय लिया और आते हुए वहा का स्टॉप ओवर ले लिया, जिसके लिए हमें कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा। हम इससे पहले भी कई बार सफर कर चुके थे, दो बार ऐरोफ्लोट में भी ट्रैवल कर चुके थे, इसलिए हमें बचत के ऐसे तरीकों खूब की जानकारी थी। अब शुरू करते हैं मास्को का हाल। जैसे ही हम जहाज से उतरे, कस्टम वालों ने हमें घेर लिया। हम अपने साथ एक वीसीआर ला रहे थे। वीसीआर भारत में उन दिनों एक नया शौक और स्टेटस सिंबल था। हम दोनों का कोई विशेष शौक नहीं था, पर सोलन में जब भी मित्र और परिचित हमारे यहां आते तो वीसीआर के बारे में पूछते। जब हम उनको बताते कि हमारे पास वीसीआर नहीं है, तो वे हमारा मजाक उड़ाते कि आप कैसे आदमी हो, इतना बाहर आते-जाते रहते हो और घर में वीसीआर तक नहीं है। सो इस बार हमने खरीद ही लिया क्योंकि हमें लगा कि भारत में इसके बिना गति नहीं है। कस्टम वालों ने कहा कि इसे आप अपने साथ बाहर नहीं ले जा सकते। अगर ले जाएंगे, तो आपको इसकी कस्टम ड्यूटी देनी पड़ेगी। उन्होंने कहा कि हम यह वीसीआर उनके गोदाम में जमा करा दें और वापसी पर रसीद दिखा कर ले लें। हमें उन कर्मचारियों का व्यवहार बहुत अजीब सा लग रहा था।                                                                                                                                                                       – क्रमशः


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