मानव बस्तियों से दूर रहे वन

By: Jul 8th, 2020 12:05 am

जंगल की जंगली अदा से दो चार होते राज्यों की शुमारी में हिमाचल के लिए यह एक बड़ा लेखा जोखा है जिसे वनाच्छादित होने की सजा के तौर पर भी देखा जा सकता है। वार्षिक तौर पर तंदूर की तरह गर्म होते चीड़ के जंगलों से बरसते अंगारे और कहीं तूफान के साथ टूटते पेड़ों की बर्बरता का शिकार होती मानव बस्तियों का सालाना नुकसान देखा जाए, तो वनीकरण के बीच भी आपदा के कई राक्षस बसते हैं। क्या वनों से मानव बस्तियों  की उचित दूरी नहीं होनी चाहिए या विकास की अधोसंरचना को जंगल से बचाने की तैयारी कभी होगी। हिमाचल के कई शहर और नई बस्तियां जिस तरह जंगल से घिरे हैं, उसका वार्षिक हिसाब किसी त्रासदी से कम नहीं। जंगल की आग से कई मानव बस्तियां मुसीबत में फंसती हैं, लेकिन बचाव की कोई नई दृष्टि विकसित नहीं हुई। आज भी जंगल के कठोर नियम किसी चीड़ के पेड़ की तरह सदाचारी नहीं हैं, तो कम से कम ऐसे आतंक से बस्तियों को तो बचाया जाए। तूफान में धड़ाम से गिरते पेड़ों के कारण विद्युत और दूरसंचार विभाग की कसरतें केवल बढ़ती ही नहीं, बल्कि ये आर्थिक नुकसान की स्थायी वजह हैं। आश्चर्य यह है कि वन संरक्षण के नाम पर कोई पेड़ जब फरसा बनता है, तो राज्य का नुकसान बढ़ जाता है, लेकिन मानवीय वेदना पर जंगल महकमा अफसोस भी नहीं करता। आग लगे बस्ती में या पेड़ गिरे मकान पर, वन विभाग की ओर से कोई स्पष्ट राहत नहीं। ऐसे में जंगल की नए सिरे से व्याख्या चाहिए ताकि इसके दबाव व खतरे सीधे तौर पर न डराएं। दूसरी ओर हिमाचल के शहरी जंगलों को नई परिभाषा, जबकि सामुदायिक वन को नए सिरे से उगाने की चुनौती रहेगी। यह कार्य हिमाचल में  तीव्रता से चलना चाहिए ताकि आबादी के नजदीक जंगल अपना चरित्र बदले। हिमाचल में हर साल सरकारी संपत्तियों पर भी पेड़ों के खतरे मंडराते हैं, लेकिन ऐसा कोई अभियान नहीं जो इसे प्राकृतिक आपदा की तरह देखे। बेशक जंगलों ने जलवायु बचाई, प्रदूषण से रक्षा की या बेहतर गुणवत्ता युक्त हवा दी, लेकिन अब नए सिरे से पृथ्वी पर मानव विकास का संतुलन देखना होगा। हिमाचल को अपने मैदानी इलाकों में मानवीय व आवासीय गतिविधियां बढ़ानी होंगी ताकि जंगल से दूर जीवन की पताका निर्विघ्न फहरा सके। शिमला को ही लें तो जंगल न तो विकास को रोक पा रहा है और न ही इनसानी फितरत को समझा पा रहा है। क्या वन से घिरे शहरों की चोटियों पर बहुमंजिला भवन का औचित्य सही है या क्या कभी जंगल ने शिमला से गुफ्तगू की। हम जंगल की आग को बस एक वार्षिक अनहोनी मानकर, इसे अग्निशमन विभाग की कसरतों में देखेंगे या कभी वन विभाग यह कह पाएगा कि आबादी के नजदीक ज्वलनशील पौधों के बजाय तपिश से दूर हरियाली उगा दें। तूफानों से जूझते पेड़ों को बस्तियों पर धराशायी होने के बजाय, मानव और जंगल की दूरी और रिश्ते बदल दें। क्या सड़कों के किनारे खड़े पेड़ की गिरने की वजह का इंतजार किया जाए या वहां फूलों के शृंगार से सराबोर झाडि़यां उगा दी जाएं। कुछ इसी तरह जंगल से बेदखल जानवरों ने जिस तरह मानव की परेशानियां बढ़ाई हैं उसका कभी वन विभाग जिम्मेदार तो बने। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में अगर जंगल राष्ट्रीय उद्देश्यों और पर्यावरणीय जरूरतों का मजबूत स्तंभ है, तो कहीं मानव विकास की छत पर खड़ा ऐसा दैत्य भी है जो अपनी प्रवृत्ति से खतरनाक साबित होकर डराता है। आपदाओं को प्राकृतिक मानकर हमें पेड़ का गिरना एक दुर्घटना प्रतीत होगी, लेकिन क्या वनों के भीतर या आबादी के नजदीक जंगल को खंजर बनने से नहीं बचाया जा सकता है।


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