सवालों का समय नहीं
राष्ट्रीय सुरक्षा और संकट के दौर में सवालों को खामोश रखना चाहिए। सरकार और सेना को हर समय कटघरे में खड़ा न रखा जाए। सवाल नहीं पूछने से लोकतंत्र समाप्त नहीं होगा और न ही औसत नागरिक के मौलिक अधिकार छिनेंगे। बंद कक्षों में, गोपनीय राष्ट्रीय विमर्श के मंचों पर सवालों की बौछार की जा सकती है, लेकिन विपक्षी दलों का राजधर्म इतना ही नहीं है कि वे ‘चीनी कब्जा’ ही चिल्लाते रहें। यदि देश नहीं रहा, तो विपक्षी दलों को चीन न तो मान्यता देगा और न ही अभिव्यक्ति की आजादी का अस्तित्व रहेगा। लिहाजा देश किसी भी दल और उसकी राजनीति से बहुत ऊपर है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से यह हमारी सेनाओं, सैनिकों और संप्रभुता की कामयाबी का दौर है। बेशक चीन को गद्दार, मक्कार, चालबाज, दगाबाज और झूठा आदि कितने भी विशेषणों से संबोधित किया जा सकता है, लेकिन पूर्वी लद्दाख के सभी क्षेत्रों से उसके सैनिकों को पीछे हटना पड़ रहा है। सहमति की एक शर्त यह भी है कि गलवान घाटी से करीब दो किलोमीटर पीछे हटने के बाद दोनों पक्षों के 30-30 सैनिक ही अस्थायी तंबुओं में मौजूद होंगे। उससे एक किलोमीटर की दूरी पर जो अस्थायी तंबू गाड़े जाएंगे, उनमें भारत-चीन के 50-50 सैनिक ही रहेंगे। उसके बाद के तंबुओं में सैनिकों की संख्या पर कोई शर्त नहीं होगी। दरअसल बुनियादी मकसद है कि सैनिकों की संख्या घटाई जाए और उनमें इतना फासला हो कि तनाव और तनातनी को कम किया जा सके। अभी तक ये तमाम सूचनाएं सेना के सूत्रों के जरिए आई हैं। सेना का आधिकारिक बयान सभी क्षेत्रों के निरीक्षण के बाद जारी किया जाएगा। सेनाओं के पीछे हटने का एक तार्किक कारण यह भी हो सकता है कि इस मौसम में गलवान नदी में जल-प्रवाह उफान पर है, लेकिन पैंगोंग, डेप्सांग और हॉट स्प्रिंग सेक्टर में पीपी-15 और पीपी-17 ए (गोगरा) पर भी सेनाओं की वापसी शुरू हो चुकी है। शीघ्र ही यह वापसी संपन्न हो जाएगी। दोनों पक्षों के सैनिक पीछे हट रहे हैं। उन इलाकों में चीन ने जो बंकर बना लिए थे, उनका क्या होगा, फिलहाल इस बिंदु पर सहमति सामने आनी है। ऐसे संवेदनशील माहौल में भारत एकजुट शक्ति न लगे, उसके बिखरावों पर चीन खुशी जताए, तो फिर संप्रभुता के मायने और सवाल महज ‘राजनीतिक’ माने जाएंगे। वे देशहित की परिधि से परे होंगे। यह ऐसा दौर नहीं है कि सवाल सार्वजनिक रूप से दागे जाएं कि यथास्थिति को लेकर चीन पर दबाव क्यों नहीं बनाया गया? हमारे जांबाज जवानों की ‘शहादत’ पर चीन में खुशी कैसे मनाई जा सकती है? गलवान में क्षेत्रीय संप्रभुता का उल्लेख सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में क्यों नहीं किया गया? गलवान से लेकर फिंगर चार और फिंगर आठ तक के इलाके भारतीय हैं या नहीं? चीनी सैनिक पीछे कहां से हटे। इसका मतलब है कि वे अतिक्रमण कर हमारी सरजमीं पर आए थे? ऐसे सवाल लोकतांत्रिक लिहाज से अनुचित न हों, लेकिन सवाल करने वालों की अज्ञानता और दुराग्रह स्पष्ट झलकते हैं। ये सवाल करते हुए यह भी याद रखना चाहिए कि अक्साई चिन, पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगिट और बाल्टीस्तान तथा लद्दाख का एक हिस्सा किसके कब्जे में है? क्या ये इलाके भारतीय नहीं हैं? इन पर चीनी कब्जा किस सरकार ने होने दिया? यथार्थ यह है कि कब्जाई गई यह सरजमीं हजारों वर्ग किलोमीटर की है। कब्जों का इतिहास आज का नहीं है। मौजूदा इतिहास तो यह है कि लेह और आसपास के इलाकों में हमारे सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने सामरिक महत्त्व के 40 पुल बनाने हैं, जिनमें से 20 पुल लगभग बनकर तैयार हैं। 2022 तक 66 सामरिक सड़कें बनाने का लक्ष्य है। यह बुनियादी ढांचा हमारी सेना और टैंकों, तोपों, भारी मालवाहक वाहनों की आवाजाही की सुविधा के मद्देनजर बनाया जा रहा है। जाहिर है कि चीन के माथे पर चिंता और विरोध की सिलवटें उभरती रही हैं। वह जरूर सोचता होगा कि ऐसे दुर्गम, पहाड़ी इलाकों में भारत सड़कों और पुलों के जाल क्यों बिछा रहा है? सियाचिन भी यहां से नजदीक है, लिहाजा उसकी सैन्य रणनीति भी मजबूत होती है। बेशक सेना के पूर्व जनरल कहते रहे हैं कि चीन ने हमारी सेनाओं की गश्त में बाधा डालने की कोशिश की थी, तंबू गाड़े गए थे, ढांचे भी खड़े करने की कोशिशें की गईं, लेकिन हमारे सैनिकों ने उन्हें खदेड़ कर यथास्थिति बदलने नहीं दी। तो फिर कब्जों के सवाल उचित कैसे हो सकते हैं? सुझाव है कि फिलहाल देश एकजुट रहे। तनाव खत्म होने के बाद माहौल सामान्य होगा, तो सरकार और सेना देश के सामने खुलासा जरूर करेंगी।
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