योग और भारतीय संस्‍कृति

By: Jul 4th, 2020 12:15 am

आरडी धीमान, अतिरिक्त मुख्य सचिव, हिमाचल सरकार

योग भारतीय परंपरा का एक बहुत अहम अंग है। हमारे देश में योग के कई ग्रंथ हैं। हठयोग प्रदीपिका, शिव संहिता, गोरक्ष संहिता, घेरंड संहिता व योग दर्शन आदि। 108 उपनिषदों में से कई उपनिषद केवल हठयोग व राजयोग को समर्पित हैं और इन सब में योग का पूर्ण ज्ञान है और योग का बहुत बारीकियों से वर्णन मिलता है। यहां तक कि गीता को भी एक योग का ही ग्रंथ माना जाता है जो पहले अध्याय में वैराग्य से शुरू हो कर अंतिम अध्याय में मोक्ष तक ले जाता है। योग के कई पंथ व कई धाराएं हैं। सभी स्वतः संपूर्ण हैं। योग शारीरिक क्रियाओं से शुरू हो कर समाधि तक ले जाता है। हठ योग केवल आसन तक सीमित नहीं होता, जो आम धारणा है, बल्कि इसके सात अंग हैं षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, समाधि। इसी तरह राज योग के भी आठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि। मन की स्थिरता के लिए विधिवत योग की क्रियाएं जरूरी हैं।  अतः योग और इसके नियम सबके लिए और सबके प्रति हैं। अब प्रश्न ये उठता है कि ये यम नियम क्या हैं? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये यम हैं, जो अपने जीवन को संयम से जीने के लिए बताते हैं और शौच, संतोष, तप स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ये नियम हैं, जो अपनी दिनचर्या व जीवन को योगमय बनाने के लिए हैं। ये यम और नियम सभी दैवी गुण हैं, इन पर चलना कठिन तो होता है पर असंभव नहीं और अगर हम चलना शुरू कर दें, तो ईश्वरीय कृपा के रूप में हमें कई अनुभव भी हो सकते हैं। अगर हम अहिंसा की बात करें, तो इसके बारे कहा गया है कि जब इसकी साधना हो जाती है, तो ऐसे व्यक्ति के पास आ कर हिंसक जीव भी हिंसा छोड़ कर उसके मित्र बन जाते हैं, इसी तरह सत्य के प्रतिष्ठित होने से कही गई बात फलीभूत होने लगती है, सत्य प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। इसी तरह अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना और जब इसकी प्रतिष्ठा हो जाती है, तो सब रत्नों की प्राप्ति हो जाती है, परंतु योगी को इनकी कोई जरूरत नहीं रहती। इसी तरह ब्रह्मचर्य के बारे में कहते हैं कि इस के सिद्ध होने से शक्ति प्राप्त होती है और योगी ऊर्ध्व रेता बन जाता है। अंत में बताते हैं कि अपरिग्रह के पालन करने से जन्म-जन्मांतरों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अपरिग्रह का अर्थ है कि जरूरत से ज्यादा पदार्थों का संकलन न करना व आसक्ति का त्याग। ये तो सारे यम हो गए। इसी तरह नियमों की सिद्धि होने पर भी दिव्य शक्तियां प्राप्त हो सकती हैं। ऐसे यम व नियमों के सभी पावों की साधना से दिव्य फलों व सिद्धियों की प्राप्ति होती है। आजकल सब से बड़ी समस्या है कि समाज में हमें इस बात का पता नहीं है कि धर्म क्या होता है। कोई कहता है मंदिर जाना धर्म है, तो कोई कहता है कि व्रत रखना धर्म है। ये सब भी धर्म के अंग हो सकते हैं, परंतु असली धर्म की पालना तभी होती है जब व्यक्ति इन सभी दस पावों को जीवन में अपनाए और दृढ़ता से इन पर चले। ये ही असली धर्म का रूप है। जब कोई व्यक्ति दृढ़ता से धर्म पर चलता है, तो धर्म उसकी रक्षा करता है, जैसे कहा गया है  धर्मों रक्षति रक्षितः। अतः हमें योग के संपूर्ण अंगों को अपने जीवन में लाना चाहिए।


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