गंदगी लोकतंत्र छोड़ो!

By: अशोक गौतम Aug 12th, 2020 12:04 am

अशोक गौतम

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उनमें एक अपनी कैटेगरी के फॉर्मर ऊंचे बिकाऊ पद के शर्माजी भी थे, अपने ही खाऊ विभाग से रिटायर हुए। वे रिटायर होने के बाद ताजे-ताजे मोहल्ला सेवक हुए थे, सो उनको आंख मारकर समाज सेवकों के झुंड से जैसे-तैसे किनारे किया तो वे मोहल्ला सेवकों के झुंड से किनारे हो गए। ‘आओ शर्मा जी! चाय पीते हैं।’ औरों की जेब से चाय के लिए वे जान भी दे देते हैं। मैं उनकी इस बीमारी से अच्छी तरह वाकिफ  हूं ऑफिस टाइम से ही। …और वे मेरे पीछे-पीछे। मैंने उन्हें चाय बनाई तो वे चाय का घूंट लेते बोले, ‘वाह यार! मजा आ गया। बड़े दिनों बाद मुफ्त की चाय पी। जबसे रिटायर हुआ हूं…’। ‘अच्छा तो शर्माजी! एक बात तो बताना…’। ‘एक क्या यार! हजार पूछो! वाह! क्या चाय बनाई है? मेरा तो आज मन…’। ‘माफ  करना! है तो कड़वा सच! सारी उम्र गंदगी खाते पेट नहीं भरा जो अब रिटायरमेंट के बाद भी…’। ‘गंदगी मोहल्ला छोड़ो! गंदगी मोहल्ला छोड़ो! के नारे लगाते गला सुखा जा रहे हो।’ ‘अरे मियां! नारा ही तो लगा रहे हैं। कौन सी मोहल्ले की गंदगी उठा रहे हैं?

बैनर तले नारा लगाना और बैनर पर लिखी समस्या भगाना दो अलग-अलग विचार हैं।’ कह उन्होंने चाय की ऐसी घूंट ली ज्यों एक ही घूंट में शेष चाय को गिलास सुड़क जाएंगे। डरा भी, इनका मुंह जल गया तो? पर फिर याद आ गया कि मुफ्त की चाय पीने का इनके पास दशकों का अनुभव है। ‘मतलब?’ वैसे तो ऑफिस में भी वे अपने कारनामों से सबको चौंकाया करते थे, पर रिटायर होने के बाद उनकी सोच को देख मैं फिर चौंका। ‘देखो बंधु! तुम औरों की नजरों में समझदार हो या नहीं, पर मेरी बंद नजरों में भी समझदार हो। हमने गरीबी देश छोड़ो! गरीबी देश छोड़ो! का नारा लगाया। हर रोज लगाया। सोए सोए भी लगाया! पर क्या गरीबी भाग गई? गरीब जरूर भागा नारे सुनकर। हमने भ्रष्टाचार देश छोड़ो! भ्रष्टाचार देश छोड़ो! का नारा लगाया। हर रोज लगाया।

सोए सोए भी लगाया! पर क्या भ्रष्टाचार भाग गया? ईमानदारी जरूर भागी नारे सुनकर। अब कौन सी मोहल्ले की गंदगी नारे लगाने से चली जाएगी मियां? गंदगी हमें छोड़ कर जाना भी चाहे तो क्या हम इसे जाने देंगे? गंदगी शाश्वत है, सफाई नश्वर! पर इसका मतलब ये तो बिल्कुल नहीं कि हम नारे लगाने ही छोड़ दें। जुबान पर जुबान धरे बैठे रहें? बजट का भी तो कुछ करना होता है बंधु कि नहीं ! पड़ा पड़ा लैप्स ही होता रहा तो? हाथ तो हम समाज सेवकों ने कभी हिलाए नहीं, अब जुबान हिलाना भी छोड़ दें क्या? नारे लगाने से कुछ हो या नए पर नारे सुनकर जनता को जरूर ऐसा महसूस होता है कि समाज सेवक उनके लिए जरूर कुछ नया कर रहा है, देश मोहल्ले में कुछ न होते हुए भी कुछ तो खास जरूर हो रहा है।

अब रही बात इस गंदगी की तो…’। इस गंदगी से तो अपना जन्म जन्म का नाता है बर्खुरदार! हमें जो भी बजट मिलता है, गंदगी हटाने को नहीं, मिलता ही और गंद पाने के लिए है। क्योंकि सब जानते हैं कि गंदगी में ही विकास का बीज छिपा हुआ है। गंदगी से सूअर पीछा छुड़वा सकता है पर हम नहीं। गंदगी है तो हम हैं। गंदगी को हम चाहकर भी नहीं छोड़ सकते। हम प्राण त्याग सकते हैं पर गंदगी नहीं। तो चलो, आठ फेरी में हमारे साथ गंदगी मोहल्ला छोड़ो! गंदगी मोहल्ला छोड़ो! के नारे लगाओ।’


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