अब राम राज्य की उम्मीद

By: Aug 7th, 2020 12:05 am

अयोध्या में राम मंदिर का भूमि-पूजन संपन्न हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने भूमि-पूजन कर पूजित शिलाएं रखीं। नींव में पवित्र मिट्टी और जल के साथ बहुत कुछ रखा गया है। अब नींव तभी खुलेगी, जब मंदिर निर्माण की प्रक्रिया विधिवत शुरू हो जाएगी। इसी जगह गर्भगृह बनेगा, जहां रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की जाएगी। अब एक आध्यात्मिक, राजनीतिक और विवादास्पद यात्रा पर विराम लग जाना चाहिए। अब करीब तीन साल की अवधि के बाद भव्य, दिव्य राम मंदिर सामने दिखाई देगा। आंखों के साथ-साथ आत्मा और अनुभूति को चरम सुख और आनंद मिलेगा। यह प्रभु श्रीराम की पाषाण-मूर्ति, भव्य इमारत और एक देवावतार का ही अध्याय नहीं है।

राम भारत के हैं, सबमें हैं और राम में भारत है। अब संदर्भ राष्ट्रीय भावना और एकता, अखंडता का है। श्रीराम उनके प्रतीक हैं। भूमि-पूजन के पवित्र अनुष्ठान के दौरान संपूर्ण भारत ही नहीं, अमरीका, ब्रिटेन, जापान और कई देश ‘राममय’ हुए, उनके गीत-भजन गाए और थिरकते भी रहे। यह टीवी चैनल्स की तस्वीरों से स्पष्ट हो चुका है। असंख्य देशवासी और रामभक्त भावुक भी हुए होंगे! ‘राममय’ होने की कुछ उपमाएं प्रधानमंत्री ने भी अपने संबोधन में दीं। प्रधानमंत्री ने राम मंदिर आंदोलन की तुलना देश के स्वतंत्रता-संघर्ष से की। दोनों ही आंदोलनों में देश के प्रत्येक भू-भाग ने संघर्ष में हिस्सा लिया, लाखों भारतवासियों ने बलिदान दिए, अंततः देश और प्रभु राम आजाद हुए।

अब राम मंदिर सांस्कृतिक आजादी का प्रतीक है। राम मंदिर करोड़ों रामभक्तों की सत्यता का प्रमाण है। राम मंदिर देश की विविधता में एकता का भी प्रतीक है। वह आने वाली पीढि़यों को आस्था और श्रद्धा की प्रेरणा देता रहेगा। दरअसल प्रभु श्रीराम संपूर्ण भारत के दर्शन और भारत की दिव्यता में मौजूद हैं। प्रधानमंत्री मोदी के भी ऐसे कथन सांप्रदायिक नहीं हैं। उन्होंने सिर्फ  हिंदू धर्म की ही बात नहीं की। हिंदू कोई धर्म भी नहीं है। वह एक जीवन-शैली है। यह स्थापना सर्वोच्च न्यायालय की भी है, लिहाजा राम को एक संप्रदाय-विशेष में बांध कर, उनका मूल्यांकन करना, बुनियादी तौर पर अपमानजनक है। कोई भी आम आदमी या राजनेता, भगवान राम का, मूल्यांकन करने वाला कौन होता है? श्रीराम पर मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर के सवालों को अब नेपथ्य में फेंक देना चाहिए।

दरअसल वे ही सांप्रदायिक और विभाजक हैं। मर्यादा और संबंधों के अवतार की मूर्ति का चमत्कार ही ऐसा है कि देश के प्रधानमंत्री ने भी रामलला के सामने साष्टांग प्रणाम किया। शरीर के आठ अंगों सहित ऐसा धार्मिक समर्पण बेहद महत्त्वपूर्ण है। यह तभी संभव है, जब इनसान अपने अहंकार और शक्तियों को विगलित करे और प्रभु के सामने झुके। यदि अयोध्या में राम मंदिर को लेकर इतना भव्य, संयोजित और व्यापक अनुष्ठान हो पाया है, देश के प्रधानमंत्री ने मंत्रोच्चारण के बीच विधि-विधान से भूमि पूजन किया और पूजित शिलाओं को मंदिर के गर्भगृह में रखा, तो यह सब कुछ भी प्रभु राम की लीला ही थी। यह संपूर्ण आंदोलन प्रभु राम की लीलाओं के आशीर्वाद से ही संपन्न हुआ। राम सौम्य, समावेशी, शालीन हैं। राम मूल्यों, धर्मों और मर्यादाआें के पर्याय हैं। राम तो इतने सर्वव्यापक और जनप्रिय हैं कि अयोध्या के करीबी ग्रामीण अंचलों में दालराम, चावलराम और रोटीराम के तौर पर संबोधित कर अन्न परोसा जाता है। यानी अन्न-अन्न में राम है। राम देश-विदेश के ग्राम्य जीवन का चेहरा भी हैं।

ऐसे राम हमारे भीतर और चरित्र में आएंगे, तो स्वतः ही ‘राम राज्य’ स्थापित होगा। प्रधानमंत्री और अन्य गणमान्य लोगों ने भी ‘राम राज्य’ की उम्मीद जगाई है। आम आदमी तो अपेक्षा ही कर सकता है। ‘राम राज्य’ बेहद मुश्किल व्यवस्था लगती है, लेकिन श्रीराम के ़फज़ल से वह भी संभव होना चाहिए। अब सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति का अतिक्रमण समाप्त होना चाहिए। यदि सांस्कृतिक सदाचार और भाईचारे की ही भावनाएं बहेंगी, तो ‘राम राज्य’ भी असंभव नहीं है। समानता, न्याय, शांति और सबका सुख ही ‘राम राज्य’ की मुख्य अवस्थाएं हैं। अतीत में क्या हुआ था, कौन आक्रांता था, मंदिर-मस्जिद कैसे टूटे, बने और मथुरा, काशी की तर्ज पर करीब 3000 मस्जिदों को तोड़ कर मंदिर-निर्माण किए जाएंगे, यदि यही सांप्रदायिक अभियान जारी रहे, तो फिर ‘राम राज्य’ की बात ही नहीं करनी चाहिए। बहुसंख्यकवाद का वर्चस्व कायम नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रभु श्रीराम की अयोध्या में तो हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन सभी रहते हैं। प्रभु की कृपा मुसलमानों पर भी देखी गई है। अब भी सैकड़ों मुस्लिम श्रीराम मंदिर के निर्माण में जुटे हैं। बेशक राम सभी के हैं और प्रत्येक प्राणी में रचे-बसे हैं प्रभु राम। यही भाव ‘राम राज्य’ है।


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