अनासक्त कर्म

By: Aug 1st, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

गतांक से आगे…

इसके विपरीत हो सकता है कि पानी की लगातार मार से वह व्यक्ति बीमार पड़ जाए अथवा बेहोश हो जाए। अतः हमें उस व्यक्ति के घर में लगी आग को ही पानी से बुझाना होगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का कर्म इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना महत्त्वपूर्ण उसका अंतःकरण है। कर्म तो केवल ऊपर निकलते हुए धुएं की भांति सूचना दे रहा है कि भीतर आग लग गई है और कुछ नहीं है। अब विडंबना यह है कि हम सभी अभिव्यक्ति पर जोर देने वाले हो गए हैं। आमतौर पर यही समझाने की कोशिश की जाती रही है कि कर्म को अच्छा करो व्यक्ति को नहीं,जबकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो यह बात सही नहीं लगती है। वास्तव में व्यक्ति के अंतःकरण में परिवर्तन आना चाहिए। व्यक्ति का अंतःकरण अच्छा होगा, तो फिर उसके कर्म व आचरण स्वयं अच्छे हो जाते हैं परंतु कहा यह जाता रहा है कि व्यक्ति के आचरण को अच्छा होना चाहिए।

इसका अर्थ यह है कि हम व्यक्ति के मूल को बदले बिना उसके ऊपर के आचरण को बदलने की कोशिश में लगे हुए हैं और धोखें में फंसे हुए हैं। अतः विद्वानों का मत है कि यदि हम सोच रहे हैं कि व्यक्ति का यदि आचरण अच्छा होगा तो अतंस अच्छा हो जाएगा, तो यह हमारी भ्रांति है, क्योंकि आचरण तो बिलकुल ऊपर की चीज है और इसका कोई अधिक महत्त्व नहीं है। महत्त्व तो अंतःकरण का है क्योंकि आचरण अंतःकरण से ही निकलता है जबकि आचरण से अंतस निर्मित नहीं होता। अतः यह जो व्यक्ति का अंतःकरण अथवा चित्त है इसको बिना बदले सब धोखा और पाखंड हो जाता है। इस संसार में यह जो पाखंड फैला हुआ है यह इसलिए है कि हम केवल बाहरी आचरण को बदलने की कोशिश करते आ रहे हैं, अंतःकरण को नहीं। अब दुनिया जो पाखंड से भर गई है इसका कोई और कारण नहीं, इसका मूल कारण यही है कि हम बिना सोचे समझे बाहरी आचरण को बदलने पर जोर देते चले आ रहे हैं।

अंतःकरण में परिवर्तन के कई उपाय हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है धर्म, जिसकी पूरी और सही जानकारी तथा इसे समझने की कला पूर्ण सद्गुरु ही प्रदान कर सकता है। पूर्ण सद्गुरु का जोर मनुष्य के अंतःकरण की क्रांति पर होता है ताकि आचरण की क्रांति घटित हो सके। अब जिसका अंतःकरण सद्गुरु द्वार बदला गया हो, उसका आचरण अनिवार्य रूप से बदल ही जाता है। जबकि बाहरी आचरण के बदलने से अंतःकरण का बदलना जरूरी नहीं है।

सतगुरु दे लड़ लगे जेहड़ा उसनूं औंदी तोट नहीं,

अंदरों बाहरों सच्चा सुच्चा पाक साफ कोई खोट नहीं।

(संपूर्ण अवतार बाणी)

मनुष्य का अंतःकरण तभी शांत हो सकता है, जब इसके चित्त और आचरण में समानता हो। संपूर्ण अवतार बाणी में मनुष्य की ऐसी निर्मल अवस्था का इस प्रकार वर्णन किया गया है।

अंदरों बाहरों इक्को होइए तां एह रब परवान करे।

कहे अवतार एह भोले भा ही बंदे दा कल्याण करे।


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