भक्त की परीक्षा

By: Aug 1st, 2020 12:20 am

श्रीराम शर्मा

ईश्वर अपने हर भक्त को एक प्यार भरी जिम्मेदारी सौंपता है और कहता है इसे हमेशा संभाल का रखा जाए। लापरवाही से इधर-उधर न फेंका जाए। भक्तों में से हर एक को मिलने वाली इस अनुकंपा का नाम है, दुःख। भक्तों को अपनी सच्चाई इसी कसौटी पर खरी साबित करनी होती है। दूसरे लोग जब जिस-तिस तरीके से पैसा इकट्ठा कर लेते हैं और मौज मस्ती करते हैं, तब भक्त को अपनी ईमानदारी की रोटी पर गुजारा करना होता है। इस पर बहुत से लोग बेवकूफ बताते हैं न बनाएंगे तो भी उनकी औरों के मुकाबले तंगी की जिंदगी अपने को अखरती और यह सुनना पड़ता है कि भक्ति का बदला खुशहाली में क्यों नहीं मिला। यह परिस्थितियां सामने आती हैं। इसलिए भक्त को बहुत पहले से ही तंगी और कठिनाई में रहने का अभ्यास करना पड़ता है। जो इससे इनकार करता है उसकी भक्ति सच्ची नहीं हो सकती।

जो सौंपी हुई अमानत की जिम्मेदारी संभालने से इंकार करे उसकी सच्चाई पर सहज ही संदेह होता है। दुनिया में दुःखियारों की कमी नहीं। इनकी सहायता करने की जिम्मेदारी भगवान भक्त जनों को सौंपते हैं। पिछड़े हुए लोगों को ऊंचा उठाने का काम हर कोई नहीं संभाल सकता। इसके लिए भावनाशील और अनुभवी आदमी चाहिए। इतनी योग्यता सच्चे ईश्वर भक्तों में ही होती है। करुणावान के सिवाय और किसी के बस का यह काम नहीं कि दूसरों के कष्टों को अपने कंधों पर उठाए और जो बोझ से लदे हैं उनको हल्का करें। यह रीति-नीति अपनाने वाले को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ईश्वर का सबसे प्यारा बेटा है दुःख। इसे संभाल कर रखने की जिम्मेदारी ईश्वर अपने भक्तों को ही सौंपता है। कष्ट को मजबूरी की तरह कई लोग सहते हैं। किंतु ऐसे कम हैं जो इसे सुयोग मानते हैं और समझते हैं कि आत्मा की पवित्रता के लिए इसे अपनाया जाना आवश्यक है। जो संपन्न हैं, जिन्हें वैभव का उपयोग करने की आदत है उन्हें भक्ति रस का आनंद नहीं मिल सकता। उपयोग की तुलना में अनुदान कितना मूल्यवान और आनंददायक होता है, जिसे यह अनुभव हो गया वह देने की बात निरंतर सोचता है।

अपनी संपदा, प्रतिभा और सुविधा को किस काम में उपयोग करूं। इस प्रश्न का भक्त के पास एक ही सुनिश्चित उत्तर रहता है दुर्बलों को समर्थ बनाने, पिछड़ों को बढ़ाने और गिरों को उठाने के लिए। इस प्रयोजन में अपनी विभूतियां खर्च करने के उपरांत संतोष भी मिलता है और आनंद भी होता है। यही है भगवान की भक्ति का प्रसाद जो इस हाथ दे, उस हाथ ले, के हिसाब से मिलता रहता है। भक्त की परीक्षा पग-पग पर होती है। सच्चाई परखने के लिए और महानता बढ़ाने के लिए। खरे सोने को कसौटी पर कसने और आग पर तपाने में उस जौहरी को कोई एतराज नहीं होता जो खरा माल बेचने और खरा माल खरीदने का सौदा करता है। भक्त को इसी रास्ते से गुजरता पड़ता है। उसे दुःख प्यारे लगते हैं, क्योंकि वे ईश्वर की धरोहर हैं और इसलिए मिलते हैं कि आनंद, उल्लास, संतोष और उत्साह में क्षण भर के लिए भी कमी न आने पाए।


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