हिमाचल में सियासी विमर्श

By: Aug 1st, 2020 12:05 am

हिमाचल में सियासत का विकल्प रहा है,लेकिन राजनीतिक विमर्श कहीं गुम हो गया। अगर सियासी विमर्श हो,तो नेताओं का वर्तमान कहीं अतीत में चला जाएगा और इस तरह नई सोच की परिपाटी में कई परिवर्तन दिखाई देंगे। यही कमी हिमाचल में तीसरे मोर्चे की संभावना को गौण करती रही है,जबकि सत्ता व विपक्ष के बीच पिछले कुछ वर्षों से जारी अदला बदली ने एक ही तरह के चेहरे कांग्रेस और भाजपा में बैठा दिए हैं। सत्ता ने हमेशा एक चेहरा ओढ़ लिया और इसी फितरत में हिमाचल का राजनीतिक मूल्यांकन मुख्यमंत्रियों तक ही सिमट गया। ऐसे में कमोबेश हर सत्ता और विपक्ष को अपने ही नेताओं की महत्त्वाकांक्षा का सामना करना पड़ता है। दरअसल यहां का राजनीतिक इतिहास ही सत्ता की चुनौतियों में नेताओं के अहम और वहम में तसदीक होता रहा। ऐसे में जीएस बाली का हालिया बयान,डा.राजन सुशांत का नया प्रयास व सुधीर शर्मा का नया आगाज समझना होगा। ये तीनों नेता पूर्व में मंत्री रहे हैं और इनकी क्षमता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल सबसे पहले डा.राजन सुशांत की नई घोषणा से उभरे तीसरे विकल्प की उन तहों को खंगालना होगा जो बार-बार सिमट जाती हैं। करीब चार बार गंभीर प्रयास हुए और उनके गहन अर्थ में सत्ता पक्ष के समीकरण देखे जाते हैं।

1990 में जनता दल की ग्यारह सीटें,1998 की हिविकां की पांच सीटें और बसपा तथा हिलोपा की एक-एक सीट के अलावा थर्ड फ्रंट को कुछ भी हासिल नहीं हो सका। इन तमाम प्रयासों को हम विफल ठहरा दें,लेकिन तीसरे विकल्प के पक्ष में परिस्थितियां इसलिए बढ़ जाती हैं क्योंकि राजनीतिक विमर्श इसकी गवाही देता है। हिमाचल में वंशवाद के खिलाफ सामाजिक स्वीकार्यता घट रही है। दूसरी ओर भाजपा के भीतर संघ परिवार की एक मात्र छत ने समर्थकों की खासी तादाद को यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि भविष्य में केवल इसी की शाखाएं चमकेंगी। गैर आरएसएस या विद्यार्थी परिषद के चेहरों के अलावा सामान्य भाजपाई का अछूत हो जाना पार्टी के भीतर खुद को साल रहा है। इसी तरह कर्मचारी नेताओं को जिस तरह मुख्य राजनीति से दरकिनार होना पड़ रहा है, उससे तीसरे विकल्प की खोज बढ़ गई है। हाशिए पर पहुंच गए कई नेताओं को वर्तमान सत्ता या इससे पूर्व कांग्रेस सरकार से भी गिला रहा है।

तीसरे विकल्प की पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा व सत्ता के आबंटन का असंतुलन बार-बार बिखराव पैदा कर रहा है। मंत्रिमंडल से कद्दावर नेताओं को दूर रखने का विशेषाधिकार अब सत्ता की साजिशों की शुमारी में दर्ज है, तो मंत्रियों के विभागों का आबंटन भी न्यायोचित नहीं हो रहा। राष्ट्रीय पार्टियों के सामने संसदीय संख्या का हिसाब बड़े राज्यों में रहता है, लिहाजा हिमाचल की संवेदना को वांछित स्पर्श नहीं मिलता और न ही आलाकमान अब निचले स्तर पर विमर्श को प्रोत्साहित करता है। ऐसे में तीसरा विकल्प महज आक्रोश नहीं, बल्कि सत्ता को अहंकार से रोकने का जरूरी संतुलन हो सकता है। वास्तव में थर्ड फ्रंट का आगाज ही राजनीतिक विकल्प का विमर्श है, जिसे लांघ कर हिमाचल की कमोबेश हर सत्ता ने अपनी ही पार्टियों के हाशिए चौड़े कर दिए।

ऐसे में दो पूर्व कांग्रेसी मंत्रियों ने अपने इर्द-गिर्द सियासी विमर्श के बिंदुओं को छूआ है। पूर्व परिवहन मंत्री जीएस बाली ने युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दिलाने के लिए बाकायदा एक कार्यक्रम बनाया है। दूसरी ओर पूर्व शहरी विकास मंत्री सुधीर शर्मा अपना गांव-अपना काम के माध्यम से आर्थिकी को स्वावलंबन से जोड़कर एक ऐसा सियासी विमर्श पैदा कर रहे हैं,जो प्रदेश का लक्ष्य बदल सकता है। कहना न होगा कि हिमाचल के तीन पूर्व मंत्री अपने-अपने तरीके से नई बहस व विमर्श खड़ा कर रहे हैं। हिमाचल की सियासी सार्थकता के लिए यह जरूरी है कि जमीनी मुद्दों पर विमर्श के हालात पैदा हों ताकि बहस के लिए समाज भी अपनी चेतना के पर्दे हटाए। वरना सत्ता का अर्थ अब जिस भ्रम में पल रहा है, वहां समाज निरंतर छोटा होता जाएगा या सरकारें इसी भ्रम में बदल जाएंगी।


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