कई पुण्यों का फल देता है कृष्ण जन्माष्टमी व्रत

By: Aug 8th, 2020 12:22 am

जन्माष्टमी की धूम

कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव के पावन अवसर पर मंदिरों को फूलों, बिजली की झालरों तथा रंग-बिरंगी झंडियों से आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। विभिन्न स्थानों पर कई मंदिर समितियों द्वारा कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर खुले मैदानों को विशेष पंडालों से सजाया जाता है जिनमें झांकियों और गीत-संगीत के साथ भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मंदिरों में कुछ दिनों पहले से ही कृष्ण जन्मोत्सव का कार्यक्रम आरंभ हो जाता है। भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर भजन संध्या आयोजित होती है तथा भगवान की लीलाओं से संबंधित विभिन्न प्रकार की झांकियों का भी प्रदर्शन किया जाता है। इस अवसर पर मटकी फोड़ प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं। आम तौर पर तिथि और नक्षत्र को लेकर भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव दो दिन मनाया जाता है जिसे उपासक अपने-अपने योग के अनुसार मनाते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अनेक हिस्सों में भी धूमधाम से मनाया जाता है।

मोहरात्रि

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि भी कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से मुक्ति प्राप्त होती है। जन्माष्टमी का व्रत करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव संपूर्ण विश्व को आनंद-मंगल का संदेश देता है। जन्माष्टमी के दिन कई स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाए जाते हैं। इस दिन दूध और दूध से बने व्यंजनों का सेवन किया जाता है। भगवान कृष्ण को दूध और मक्खन अति प्रिय था, अतः जन्माष्टमी के दिन खीर और पेडे़, माखन, मिस्री जैसे मीठे व्यंजन बनाए और खाए जाते हैं। जन्माष्टमी का व्रत मध्य रात्रि को श्रीकृष्ण भगवान के जन्म के पश्चात भगवान के प्रसाद को ग्रहण करने के साथ ही पूर्ण होता है।

मटकी फोड़ने का दही-हांडी समारोह

जन्माष्टमी के अवसर पर मंदिरों व घरों को सुंदर ढंग से सजाया जाता है। इस त्योहार को कृष्णाष्टमी अथवा गोकुलाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। इस त्योहार के दौरान भजन-कीर्तन गाए जाते हैं व नृत्य एवं रास लीलाओं का आयोजन किया जाता है। इसके साथ ही साथ दही-हांडी जैसे आयोजन भी होते हैं, जिसमें मिट्टी के एक बर्तन में दही, मक्खन इत्यादि रख दिए जाते हैं। मटकी को काफी ऊंचाई पर लटका दिया जाता है जिसे फोड़ना होता है। इसे दही-हांडी आयोजन कहते हैं और जो भी इस मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है, उसे ईनाम दिया जाता है।

जन्माष्टमी व्रत का महत्त्व

जन्माष्टमी के संदर्भ में इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि इस व्रत को किस दिन मनाया जाए। जन्माष्टमी में अष्टमी को दो प्रकारों से व्यक्त किया गया है, जिसमें से प्रथम को जन्माष्टमी और अन्य को जयंती कहा जाता है। स्कंदपुराण के अनुसार कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्रत होता है। यदि दिन या रात्रि में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करना चाहिए। कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाना चाहिए तथा व्रत का पालन करना चाहिए। विष्णु पुराण के अनुसार कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद माह में हो तो इसे जयंती कहा जाएगा। वसिष्ठ संहिता के कथन के अनुसार अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में पूर्ण न भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में व्रत करना चाहिए। स्कंद पुराण के एक अन्य कथन के अनुसार जो व्यक्ति जन्माष्टमी व्रत को करते हैं, उनके पास लक्ष्मी का वास होता है। विष्णु पुराण के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से अनेक जन्मों के पापों का क्षय होता है। भृगु संहिता के अनुसार जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि, ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अंत में पारणा करना चाहिए।

विष्णु का महत्त्वपूर्ण अवतार

गीता की अवधारणा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जब-जब धर्म का नाश होता है, तब-तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूं और अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करता हूं। अतः जब असुर एवं राक्षसी प्रवृत्तियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है, तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं। भगवान विष्णु का इन समस्त अवतारों में से एक महत्त्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा। भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, उस पवित्र तिथि को लोग कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं।


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