प्यार बांटते चलो

By: Aug 11th, 2020 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

मॉर्निंग वॉक के दौरान जेब में सेनेटाइज़र डाले, चेहरे पर मास्क लगाए पंडित जॉन अली और मैं, सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ध्यान रखते हुए घूम रहे थे। अचानक वह गुनगुनाने लगे, ‘‘प्यार बांटते चलो, प्यार बांटते चलो, हे प्यार बांटते चलो, क्या हिंदू क्या मुसलमान, हम सब हैं भाई-भाई।’’ हैरान होते हुए मैंने उनसे पूछा, ‘‘क्या हुआ पंडित जी, आज तो सुबह-सवेरे ही प्यार बांटने लगे?’’ वह बोले, ‘‘काश! ऐसा हो पाता। आजकल तो सब कोरोना वायरस बांटने में लगे हैं। जिसे देखो, स्वच्छता अभियान की तरह सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा रहा है। आप चाहे लाख बच कर चलें, लोग आपसे रपट कर ऐसे निकलते हैं जैसे शोहदे किसी षोडशी को कंधा मार कर भीड़ में गायब हो जाते हैं।

जो गुण जन्मज़ात होने चाहिए, हम उन्हें आदमी में पके फलों की तरह आरोपित करना चाहते हैं।’’मैंने कहा, ‘‘पंडित जी विस्तार से समझाएं। मैं तो जनता की तरह भेड़ों जैसे हंकने की सदियों पुरानी आदत का शिकार हूं। अपनी खोपड़ी तो खदान में पड़े हीरे की तरह, अनतराशी पड़ी है। कौन तराशने में अपनी ऊर्जा ़खर्च करे? जहां लीडरान ले चलें, वहीं निकल लेते हैं। कुछ साल इसके साथ, जब उससे ऊब गए तो दूसरे के साथ। इसी चला-चली में उम्र गुज़री जाती है। वैसे आम आदमी की ऊर्जा तो ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरा करने में ही खर्च हो जाती है।’ पंडित जी बोले, ‘‘अमां यार! यही तो दि़क़्कत है। आम आदमी सोचे तो तब, जब उसके पास जीने का सामान हो।

कमब़ख्त, दो ़फुट का कुआं भरने में ही नहीं आता। काश! हमारे पास भी भेड़ें की तरह ऊन होती तो गड़रिए चरने का बंदोबस्त तो कर देते। चमड़ी तो ऐसे भी उतर ही जाती है।’’ मैंने पूछा, ‘‘पंडित जी, भेड़ों और भेडि़यों में क्या अंतर है?’’ पंडित जी बोले, ‘‘़फ़र्क, महज़ शब्द उत्पत्ति और अक्षरों का नहीं। नियति और नीयत का भी है। भेड़ें तो बनी ही कटने के लिए हैं और भेडि़ए काटने के लिए। भेड़ों की नीयत क्या? उनकी नियति और नीयत में कोई अंतर नहीं। नीयत तो भेडि़यों की होती है, जो पूरी योजना के साथ यहां-वहां घूमते हुए घात लगाए रहते हैं। मौ़का मिलते ही, भेड़ों की ऊन, चमड़ी और मांस, सब निकाल लेते हैं। भेड़ों में तो इतनी अ़क्ल भी नहीं कि जान सकें, कौन उनकी खाल पहने उन्हीं के साथ चरने का स्वांग भर रहा है। अब भेड़ की खाल में भेडि़या कहावत ऐसे तो नहीं बनी? अगर पता चल भी जाए कि भेडि़या कौन है, तो भी स्वभावगत भेड़ें अपने दल में नया भेडि़या शामिल कर लेती हैं।

देखो, वायरस संक्रमण को रोकने के लिए किसने कहा? भेड़ें तो भूखी रह कर भी तैयार थीं। समय बीतने के साथ भेडि़यों से रुकना मुश्किल हो गया। जब उनके पेट में मरोड़ उठने लगे तो वे फिर से उनके रेवड़ में शामिल होने के जतन करने लगे। भेड़ों ने आदतन उनका ़खैर म़कद्दम करते हुए ‘स्वागत है, स्वागत है’ के नारे लगाना शुरू कर दिए। अब भेडि़ए तो भेडि़ए ठहरे। उनके जबड़े तो ़खून लगे हैं। वे शिकार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। भेड़ों को बांटने वाले पुराने मंत्र, ‘आए, बांटा और चल दिए’ में बांटा शब्द को काटा से बदल दिया गया है। अब नया मंत्र है-आए, काटा और चल दिए। लेकिन सोचो अगर भेड़ें कटने से इंकार कर दें तो?


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App