स्कूली शिक्षा की बदलेगी सूरत!

By: Aug 3rd, 2020 12:06 am

प्रस्तावित  नई शिक्षा नीति पर बात अधूरी रह गई थी। दरअसल हम स्कूलों की व्यवस्था का विश्लेषण नहीं कर सके, जबकि स्कूल ही औपचारिक शिक्षा की बुनियाद हैं। बेशक स्कूलों की स्थिति बदली है, लेकिन वह भी शहरों तक ज्यादा सीमित है। गांवों, पिछड़े और आदिवासी इलाकों में अब भी पर्याप्त भवन नहीं हैं, जिनमें स्कूल चलाए जा सकें। अब भी बच्चे टाट, दरी या जमीन पर बैठकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। भारत सरकार फिलहाल देश के जीडीपी का करीब 4.34 फीसदी शिक्षा पर खर्च कर रही है। अब लक्ष्य 6 फीसदी तय किया गया है।

उसका विश्लेषण तो नया बजट आने के बाद ही संभव है, लेकिन सरकार नई नीति के तहत शिक्षा की सूरत बदलना चाहती है। पहले प्री-स्कूल शिक्षा निजी और अंग्रेजी माध्यम के महंगे संस्थानों में ही कराई जाती थी। सरकारी स्कूल सीधा पहली कक्षा से ही शुरुआत करते थे, लेकिन शिक्षा नीति के मसविदे में जो फॉर्मूला तय किया गया है, उसके तहत पहले पांच साल में तीन साल तक बच्चे खेलों और गतिविधियों के जरिए सीखने की कोशिश करेंगे। इस उम्र में बच्चों का मानसिक विकास बहुत तेज गति से होता है, लिहाजा बच्चे चीजों की पहचान सीखेंगे, वर्णमाला के अक्षर बोलना सीखेंगे और कुछ अन्य विविध शिक्षा ग्रहण करेंगे।

तीन साल के बाद पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई होगी। उसके बाद पांचवीं तक, फिर 8वीं तक और अंत में 9वीं से 12वीं कक्षा की पढ़ाई कराई जाएगी। शिक्षा वस्तुपरक और विषयपरक होगी। नई शिक्षा पद्धति का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि किताबी शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा, कौशल विकास के प्रशिक्षण दिए जाएंगे। यानी किशोर उम्र तक बच्चा सोचने लगेगा कि उसे किसी हुनर पर आधारित काम-धंधा करना है या फिर उच्च शिक्षा की ओर जाना है। यदि यह पद्धति कड़ाई से लागू की गई और हुनर के कार्यक्रम फर्जी और सांकेतिक होने के बजाय गंभीरता और पेशेवर तरीके से चलाए गए, तो शिक्षा की नई सूरत सामने आ सकती है।

कमोबेश किताबें रटने वाली जो शिक्षा भारत में क्लर्क ही पैदा करती रही है, उससे छुटकारा मिल सकता है, क्योंकि 10-12वीं स्तर तक आते-आते परीक्षाएं वस्तुपरक भी होने लगेंगी। परीक्षाओं की सूरत भी बदलेगी। बच्चे के शिक्षण और पठन-पाठन का मूल्यांकन भी अलग मानकों पर होगा। किसी भी हुनर से शिक्षा को जोडऩे का बुनियादी फायदा यह मिल सकता है कि स्कूलों से बच्चों का पढ़ाई छोड़ कर चले जाने की दर नगण्य या बहुत कम हो सकेगी। इस सरकारी दावे की असल परीक्षा भी अभी होनी है। शिक्षा मंत्रालय के ही डाटा के मुताबिक करीब एक-चौथाई बच्चे 9-10वीं कक्षा में आने या उसे पूरा करने से पहले ही स्कूल छोड़ कर चले जाते हैं। एक दर्जन राज्यों में अधबीच में ही स्कूल छोड़ देने की औसत दर 20 फीसदी से ज्यादा है। बिहार में यह दर करीब 40 फीसदी है।

स्कूल छोडऩे के अलग-अलग कारण हो सकते हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति के लिए यह गंभीर चुनौती है। यह भी लक्ष्य तय किया गया है कि शिक्षा नीति के जरिए दो करोड़ बच्चे दोबारा मुख्यधारा में लाए जाएंगे। हुनरवाली शिक्षा छठी कक्षा से ही शुरू हो जाएगी। सेकंडरी तक सब की शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित होगी और 2030 तक 100 फीसदी नामांकन स्कूलों में होगा। उच्च शिक्षा में 2035 तक सकल प्रवेश दर 50 फीसदी तक बढ़ाई जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी यह लक्ष्य दोहराया है। वह चाहते हैं कि देश में नौकरी मांगने वालों के बजाय नौकरी देने वालों की संख्या ज्यादा बढ़े। यानी प्रधानमंत्री का फोकस स्व-रोजगार पर है और उसे स्कूली शिक्षा के जरिए भी वह हासिल करना चाहते हैं।

कुछ सवाल उच्च शिक्षा के दौरान विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता, वर्ण-व्यवस्था के आधार पर ग्रेडिंग, 15 सालों के दौरान कॉलेजों की संबद्धता को समाप्त करना, विश्वविद्यालयों के आर्थिक स्रोत और महंगी उच्च शिक्षा, आम आदमी की उच्च शिक्षा तक सहज पहुंच, मुफ्त और रियायती शिक्षा आदि को लेकर भी हैं। सवाल चीनी भाषा को पाठ्यक्रम से बिल्कुल बाहर कर देने पर भी है। विदेशी भाषाओं में जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश, जापानी, रूसी, थाई और कोरियन भाषाओं के साथ चीनी क्यों नहीं पढ़ सकते? कूटनीति भाषा पर नहीं होनी चाहिए। असंख्य छात्र चीनी भाषा पढऩा पसंद करते रहे हैं। बहरहाल सरकार किस मसविदे के आधार पर शिक्षा नीति को अंतिम प्रारूप देगी, अभी यह देखना शेष है।


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