शहरीकरण की ओर हिमाचल

By: Aug 13th, 2020 12:06 am

अंततः हिमाचल को भी शहरीकरण का अदब रास आने लगा और सरकार के भीतर चिंतन मनन की दरख्वास्त बनकर शहरी निकायों का विस्तार मंत्रिमंडल का एजेंडा बन गया। बावजूद इसके हिमाचल की शहरी रफ्तार के न पैमाने तय हो रहे हैं और न ही प्रादेशिक तौर पर शहरीकरण का कोई खाका तैयार हुआ है। हिमाचल के ही करीब उत्तराखंड ने आठ और जम्मू-कश्मीर ने छह नगर निगमों का गठन करके शहरीकरण की तहजीब को व्यवस्थित किया। इनके मुकाबले हिमाचल में शिमला के वर्षों बाद धर्मशाला को नगर निगम का दर्जा मिला। वास्तव में हिमाचली मानसिकता का शहरीकरण अगर पढ़ा जाए, तो गांव से कस्बों तक के लिए टीसीपी कानून को सशक्त करने की जरूरत है, जबकि पूरे प्रदेश को इसके दायरे में सुव्यवस्थित करने की दिशा में प्रयास करना होगा। बहरहाल आनी, निरमंड, अंब और शाहपुर में चार नई नगर पंचायतों तथा बीबीएन, सोलन व मंडी को नगर निगम बनाने की दिशा में हिमाचल ने अपने ग्रामीण बंधनों को तोड़ा है।

 उत्तराखंड ने अपनी जरूरत के अनुसार नगर निगम बनाते हुए ग्रामीण परिवेश को एक तरह से बचाया है, जबकि शहरों की प्रवृत्ति का भी संरक्षण किया। उदाहरण के लिए ऋषिकेश की धार्मिक पवित्रता में नगर निगम की उपाधि को कमोबेश उसी रंग में निरुपित किया, जो पर्यटन की महत्त्वाकांक्षा को पूर्ण कर सके। कोटद्वार जैसे छोटे कस्बे में नगर निगम के परिदृश्य की संपूर्णता लाने के लिए एक साथ 73 गांव शामिल किए। दरअसल शहर की परिक्रमा में पलते गांवों की बाड़बंदी न की जाए, तो ये क्षेत्र भू माफिया, अतिक्रमण तथा बेतरतीब विकास की काली कलूटी तस्वीर ही पेश करेंगे। हिमाचल में नवनिर्माण की होड़, व्यावसायिक-व्यापारिक जरूरत, विकास के नए अवसरों की तलाश और जीवन शैली में आते परिवर्तनों की वजह से हुआ शहरीकरण अगर समझा होता, तो नए युग की अवधारणा में बहुत पहले से नगर निकाय अपना स्वरूप  बदल लेते। उदाहरण के लिए पालमपुर के शहरी मिजाज में पलते क्षेत्र आज भी ग्रामीण हैं, जबकि एक प्राचीन नगर परिषद आज तक अपना दायरा नहीं बढ़ा सकी।

दरअसल हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में शहरों का वर्गीकरण करना होगा ताकि धार्मिक स्थल, औद्योगिक परिसर, एजुकेशन हब, प्रशासनिक शहर, पर्यटक कस्बे तथा निवेश केंद्र अपने इर्द-गिर्द के विकास को सुव्यवस्थित कर सकें। इसी के साथ शहर एवं गांव की क्लस्टर प्लानिंग करनी होगी ताकि परिवहन, जल तथा कूड़ा-कचरा प्रबंधन व आवासीय जरूरतों की व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। हमारा मानना है कि नगर निगमों की स्थापना के साथ-साथ एक बड़े क्षेत्र की क्लस्टर प्लानिंग के समाधान के रूप में कम से कम आधा दर्जन शहरी विकास प्राधिकरणों का गठन भी करना होगा। उदाहरण के लिए भुंतर-कुल्लू-मनाली को मिला कर एक शहरी विकास प्राधिकरण स्थापित होता है, तो एक बड़े क्षेत्र की योजना में नगर व गांव के बीच समन्वय व सेवाओं का संतुलन पैदा होगा। इसी तरह टीसीपी कानून के तहत पूरे प्रदेश को ध्यान पर रख कर भविष्य की योजनाएं बनाई जाएं, तो प्रमुख मार्गों से पांच से दस मीटर दूर ही निर्माण की अनुमति मिलेगी और इससे दृश्यावलियां बचेंगी और परिवहन की अधोसंरचना भी मजबूत होगी। प्रदेश में दो से तीन शहरों के बीच कर्मचारी बस्तियां, उपग्रह नगर, निवेश केंद्र, कूड़ा निष्पादन परिसर, अदालती परिसर तथा ट्रांसपोर्ट नगर विकसित करके स्वरोजगार के नए अवसर पैदा किए जा सकते हैं। हिमाचल प्रदेश के हर शहर को क्षमता विकास, शहरी सुशासन, उचित प्रबंधन तथा अपने मसलों पर केंद्रित होने की आवश्यकता है। इन कार्यों को नगर निकाय आवश्यक राजस्व प्राप्ति तथा उचित सरकारी अनुदान से ही पूरा कर सकते हैं।

 नगर निकायों की स्वतंत्रता तभी संभव है अगर ओछी राजनीति की दीवारें हटाई जाएं और नागरिक समाज तमाम सुविधाओं के लिए खर्चा वहन करने की आदत डाले। प्रदेश में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को देखते हुए हर शहरी क्षेत्र को लंबी अवधि की योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्रदेश में शहरी अध्ययन व कॉडर संरचना की दृष्टि से शहरी प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना करनी चाहिए। दुर्र्भाग्यवश धूमल सरकार के दौरान राष्ट्रीय स्तर के एक संस्थान से इसलिए हाथ धोना पड़ा क्योंकि तत्कालीन शहरी विकास मंत्री इसे बिना किसी औचित्य के अपने ही क्षेत्र में स्थापित करना चाहते थे। अगर इसी तरह शहरी निकायों के विस्तार को सियासी चश्मे से देखते रहेंगे, तो शायद ही हिमाचल अपनी व्यवस्था में निपुण होगा। ये सारे कार्य जनसहयोग और जरूरतों के अनुरूप करने होंगे, वरना बिहार, ओडीसा और पूर्वोतर राज्यों की श्रृंखला में फंसा हिमाचल शहरीकरण के उत्तर नहीं ढूंढ पाएगा।


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