विकास विरोधी सियासत

By: Sep 24th, 2020 7:06 am

अजीब स्थिति में हिमाचल की राजनीति का जनता के मुद्दों से रिश्ता रहा है, इसलिए नेताओं का विकास वास्तव में विकास की राजनीति नहीं। विकास पर वोटों का निर्धारण होता, तो तमाम बड़े नेता न लुढ़कते, बल्कि विकास के खिलाफ अब विरोध की पिच बिछाई जाने लगी है। न विकास का मूड और न ही विकास का चेहरा देखा जाता है, बल्कि नकारात्मक राजनीति अपनी होने को तय कर रही है। इसे मौजूदा संदर्भों में देखें, तो नगर निगमों के प्रस्तावित गठन का विरोध दरअसल सियासत के नए प्रकोष्ठ में खड़े होने की तैयारी है, जहां समाज को उसके दायित्व बोध से अलग करके देखा जाता है। सोलन, मंडी, बीबीएन या पालमपुर की परिधि में नगर निगमों की परिकल्पना का एक खास मकसद व कारण रहे हैं, लेकिन नकारात्मक सियासत को नायक बनने का यह अवसर दिखाई दे रहा है। इसका एक कारण यह भी कि अब हिमाचल में भी राजनीति के भीतर न नैतिक और न ही प्रशासनिक चिंताओं का समावेश है, बल्कि इसका किरदार शातिर, अवसरवादी, जनता को  मूर्ख बनाने की क्षमता रखता है या सत्ता की भूख में प्रदेश का चरित्र बदल रहा है। दूसरी ओर बिना नीतियों ने विकास के मायने राजनीति के पहिए बना दिए और इसलिए राजनीतिक मंच घोर अपराध करने लगे या नैतिक रूप से डरपोक हो गए।

 दुर्भाग्यवश यह प्रदेश बौद्धिक रूप से भी अपंग साबित हो रहा है, क्योंकि जनता का आलोच्य पक्ष निजी स्वार्थों का कारिंदा है। बौद्धिक रूप से जनता की भीतरी  तरंगे और तर्क राजनीतिक खुशामदी में अपने स्वार्थ का सिरा पकड़ कर बैठी हैं। ऐसे में विकास का अर्थ सीमित व नजदीकी है, जबकि एक व्यापक दृष्टि में हिमाचल को देखने की जरूरत है। क्या हम युवा जरूरतों या सपनों के हिमाचल को विकास के माध्यम से संपूर्ण कर पाए या राजनीति अपने पुराने ढर्रे पर यह पाठ पढ़ा रही है कि पैंतालीस साल की आयु तक सरकारी नौकरी की प्रतीक्षा ही सबसे बड़ा मिशन रहेगा। शहरीकरण में उत्पन्न अवसर,युवाओं के सोच और समृद्धि को आत्मनिर्भरता का पैगाम देते हैं। प्रस्तावित नगर निगमों के आंचल में क्रोधित पंचायतों का सबसे बड़ा पक्ष विकास नहीं, बल्कि उस एहसास को जिंदा रखना है जो गांव में निरंकुश है। दरअसल गांव की छाया और नगर निगम की काया में सिर्फ शुल्क अदायगी का ही अंतर नहीं, बल्कि ऐसे सोच का प्रदर्शन है जो सियासत की खेती में लाभार्थी बना रहना चाहता है। आश्चर्य यह कि परवाणू से सोलन तक फैलते शहरीकरण के नक्शे में कभी यह एतराज पैदा नहीं हुआ कि क्यों खेत की बर्बादी में सैकड़ों इमारतें खड़ी हो गईं। देखते ही देखते सोलन ने सपाटू, राजगढ़, कुमारहट्टी तथा शिमला की तरफ कूच करते हुए पहाडि़यों को लील  दिया, लेकिन गांव के तर्क फैलते शहरीकरण को नहीं देख पाए। चंडीगढ़ के पास मोहाली, पंचकूला और अब तो एक लंबे- चौड़े इलाके की आबो हवा में शहरी रोजगार की बांछें खिल गईं, लेकिन हिमाचल बीबीएन को इस काबिल भी नहीं बना पाया। अगर इसे शहरी परिकल्पना में देखा गया होता, तो बीबीएन की औद्योगिक क्षमता से निकली आवासीय व्यवस्था, मोहाली, चंडीगढ़ या पंचकूला का रुख न करती।

लोगों को खेत बेचना मंजूर है, लेकिन व्यवस्थित होना नहीं। बहुत साल पहले अस्पतालों में यूजर्स चार्जिज का विरोध न होता, तो सरकार का चिकित्सकीय ढांचा अव्वल होता। स्की विलेज के विरोध में देवता न उतारे होते तो कुल्लू के पर्यटन की क्षमता का कुछ और असर होता। जाहिर तौर पर इसी दृष्टि से शहरीकरण को नजरअंदाज करके हिमाचल ने अपनी विकास प्राथमिकताएं ही  खुर्द बुर्द कर दीं। क्या सोलन के सुलतानपुर रोड की पहाडि़यों पर बिछी इमारतें खतरनाक शहरीकरण नहीं है और ऐसे सैकड़ों भवनों ने जिस हरियाली को कुंद किया, उसे ग्रामीण परिवेश मान लिया जाए। हिमाचल में खेती और विकास के बीच नकारात्मक राजनीति के पंजे यहीं तक नहीं रुकेंगे। लोग ठोस कूड़ा कचरा प्रबंधन की अधोसंरचना, सड़कों के चौड़ाकरण, हवाई अड्डों के विस्तार या विकास की हर परियोजना का विरोध करके केवल राजनीति की कमजोरियां बढ़ा कर भविष्य को नजरअंदाज कर रहे हैं। दूसरी ओर विकास का खाका भी कुछ ऐसा बन गया कि जनता केवल इसका दोहन करके प्रसन्न रहे, न कि मूल्य संवद्वित सेवाओं के लिए कर अदायगी भी हो।


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