कांग्रेस में कितना दम-1

By: Sep 29th, 2020 9:30 am

दम दिखाने की अनिवार्यता से गुजर रही कांग्रेस के लिए हिमाचल की तस्वीर, आगामी चुनाव के दहलीज पर खड़ी है। ऐसे में पार्टी के प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला का पहला दौरा, नए परिचय का मंतव्य खंगाल रहा है। यह निवर्तमान प्रभारी रजनी पटेल से कितना भिन्न व कारगर होगा, इस पर नया इतिहास लिखा जाएगा, लेकिन हिमाचल का राजनीतिक इतिहास देश से अलग साबित हुआ है और इसीलिए कांग्रेस अपनी हिम्मत के साथ चुनावी राग शुरू कर रही है। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने खुद को कहीं अधिक नुकसान पहुंचाया था, जबकि तत्कालीन प्रभारी छोटे राज्य के बड़े राजनीतिक पेंच नहीं समझ पाईं। पेंच भाजपा में भी रहे हैं और अगर हारे हुए दिग्गजों पर नजर दौड़ाई जाए तो सिसकियां परेशान करती हैं। भाजपा के भीतर कई नेता घायल या हाशिए पर हैं, तो यह सत्तारूढ़ दल की फांस है जो कांग्रेस को यह खुशफहमी दे सकती है कि ‘उनकी’ चादर में ज्यादा छेद हैं। बेशक कांग्रेस के पास रिक्त स्थान भरने की संभावना अधिक है और इस लिहाज से राजीव शुक्ला का चाणक्य इतिहास संबल देगा। पत्रकार से राजनीति में धुर्रे बिखरते हुए उन्हें भारतीय क्रिकेट एसोसिएशन की पिच का अनुभव है, लिहाजा यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के भीतर टीम वर्क की संस्कृति में नए प्रभारी की पृष्ठभूमि कुछ  हद तक काम आएगी।

 कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव की पहली अग्नि परीक्षा नए नेतृत्व की खोज से शुरू होगी, क्योंकि वीरभद्र सिंह के विकल्प में कई कांग्रेसी नेता कदमताल कर रहे हैं। कांग्रेस के भीतर की विस्फोटक स्थिति भी यही रही है और यह पार्टी के प्रदेशाध्यक्षों की श्रृंखला में पनपती महत्त्वाकांक्षा का सुरूर भी रहा। वीरभद्र सिंह के खिलाफ ‘बनाम’ बनने की होड़ कौल सिंह, विद्या स्टोक्स,सुखविंद्र सुक्खू व जीएस बाली से होते हुए नए समीकरणों में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री तक चिन्हित रही है। ऐसा नहीं है कि आगामी चुनाव में कांग्रेस आसानी से अपना चेहरा चुन पाएगी और असमंजस शुक्ला को भी रहेगी कि वह महत्त्वाकांक्षा की पर्वतीय धाराओं का संगम कैसे बनाएं। यह प्रश्न ताजा सियासत के भंवर से उभर रहे हैं, तो पिछली हार के कड़वे घूंट पिए बिना, वर्तमान सरकार की कमजोरियों का फायदा नहीं उठा पाएंगे। बेशक कांग्रेस किसानों के आंदोलन में आंदोलनरत दिखने की कोशिश करेगी, लेकिन संगठनात्मक शक्ति में एकजुटता की लहरें अगर नहीं बनीं, तो फायदों की जुबान चंद नेताओं का बयान बनकर रह जाएगी। हिमाचल हर बार विपक्ष के आक्रोश में सत्तापक्ष को सताता है और इस तरह कांग्रेस के लिए स्थानीय मुद्दे चुनना जहां आसान होगा, वहीं केंद्र व राज्य के बीच फिर से संबंधों की पैमाइश होगी। पुनः अधोसंरचना विकास की लुकाछिपी में पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच दावों की मिर्ची लगेगी।

बेशक वर्तमान सरकार ने राष्ट्रीय हिसाब से कहीं ज्यादा वित्तीय लाभ केंद्र से अर्जित किया है, लेकिन ऋण के दबाव में खड़ी व्यवस्था से पूछा जाएगा और हिसाब के विपक्षी तेवर तो राजनीति की हर इंच में,‘डबल इंजन’ सरकार की पैमाइश करेंगे। ऐसे में रोहतांग सुरंग के मुहाने पर लटकी श्रेय की पट्टिकाएं किस तरह भाजपा के साथ खड़ी होती हैं या इस गवाही के विपरीत कांग्रेस पूछने की अपनी करामात में घोषित 69 नेशनल हाई-वे तथा फोरलेन परियोजनाओं पर सत्तापक्ष को कितना आड़े हाथों लेती है, इस पर चुनावी रिहर्सल देखी जाएगी। राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक हो चुके संदर्भों में कांग्रेस के लिए राज्यों का सहारा ही एकमात्र विकल्प है ताकि देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने लिए उल्लेखनीय स्थिति व उपस्थिति हासिल कर सके। हिमाचल का राजनीतिक इतिहास अपने आंकड़ों में कई बार सियासी पंडितों को हैरान कर चुका है। पिछले कई चुनावों का विश्लेषण बताता है कि सत्तापक्ष का मिशन रिपीट हर बार असंभव हो रहा है, जबकि जनता का रुझान विपक्ष के साथ गलबहियां कर लेता है। इसका जिक्र हम आगामी अंक में करेंगे, फिर भी यह कहना चाहेंगे कि कांग्रेस को इस बार अपना चेहरा इस लिहाज से चुनना होगा ताकि क्षेत्रीय संतुलन में पार्टी भाजपा से आगे निकल सके। भाजपा के मंत्रिमंडलीय आकार-प्रकार व सत्ता के लाभार्थी पदों की वर्तमान शिनाख्त में क्षेत्रीय असंतुलन का रिसाव है। ऐसे में कांग्रेस की संगठनात्मक हैसियत अगर पूरे प्रदेश की महत्त्वाकांक्षा में विपक्ष की भूमिका का प्रसार कर पाती है या आगामी सफर के विषयों को स्पष्टता से रख पाती है, तो प्रचार की सामग्री को प्रतिनिधित्व मिल पाएगा।


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