ज्ञान और विवेक

By: श्रीश्री रवि शंकर Sep 19th, 2020 12:20 am

क्या तुमने ध्यान दिया है कि प्रत्येक क्षण तुम्हारे मन में क्या चल रहा होता है। मन इसी उधेड़बुन में रहता है कि आगे क्या होगा। ज्ञान में मन के इस रूप के प्रति सजगता आती है कि इस पल मन में क्या घट रहा है। पुस्तकें पढ़कर अन्य सभी प्रकार की जानकारी तथा शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। चाहे जन्म हो मृत्यु या खान-पान की आदत। किसी भी विषय पर तुम किताब खोल सकते हो।

अनगिनत प्रसंगों पर ढेरों पुस्तकें उपलब्ध हैं। परंतु  अपने मन के प्रति  जागरूकता पुस्तक पढ़कर नहीं सीखी जा सकती। क्या करता है हमारा मन वह अतीत और भविष्य के बीच डोलता है। प्रत्येक क्षण या तो वह अतीत को लेकर क्रोधित है या भविष्य को लेकर व्याकुल। एक और प्रवृत्ति है मन की नकारात्मक बातों से चिपके रहने की। यदि दस सकारात्मक घटनाओं या दृष्टांतों के बाद एक नकारात्मक बात घटती है, तो हम उन दस अच्छी बातों को एकदम भूलकर उस एक नकारात्मक घटना से चिपक जाते हैं। तुम खुद की सबसे ज्यादा मदद मन की इन दोनों प्रवृत्तियों में बदलाव लाकर कर सकते हो। मन की इन दोनों प्रवृत्तियों के प्रति जागरूकता तुम्हें सहज और सरल बनाएगी। यह बेहद अनमोल मूल्य है, जो तुम्हें अंदर से खिलने में सक्षम बनाएंगे। दरअसल इस पवित्रता के साथ हमारा जन्म होता है। परंतु जैसे-जैसे हम अधिक से अधिक परिपक्व और होशियार बनते जाते हैं इस सरलता को खोते हुए रूखे बनते जाते हैं।

रूखेपन से छुटकारा पा जाओ, तो देखोगे कि जीवन कितना अधिक प्रतिफलित अधिक मजेदार और ज्यादा चित्ताकर्षक बन जाता है। यह ज्ञान है, यह पूजा भी है। जब तुम बच्चे थे, तो कोई समस्या नहीं थी। आज तुम लड़ लेते तो अगले ही दिन तुम्हारी दोस्ती हो जाती, परंतु जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, फंसते और उलझते जाते हो। तुम उलझन में पड़ जाते हो, पूरा समाज उलझन मे पड़ जाता है। तब तुम्हें ज्ञान रूपी कंघी की आवश्यकता पड़ती है। जब तुम्हारे पास प्रभावशाली कंघी होती है, तो तुम्हारे बालों को सुलझा हुआ और सुव्यवस्थित रखने में मदद करती है। ठीक यही बात समाज में होती है। ज्ञान और विवेक के अभाव में हम एक दूसरे से उलझ जाते हैं। हमारे मन में घृणा, द्वेष और लालसा भरी हुई है।

किसी के मन में झांक कर देखो। कहीं अन्य के प्रति अति अधिक ज्वरभाव है तो कभी भविष्य के लिए लालसा  या फिर अतीत के प्रति द्वेष। ज्ञान और विवेक की कंघी द्वारा हम समाज में सुव्यवस्था को बढ़ावा दे सकते हैं। हमें अपने मन का, स्वयं का अध्ययन करना है। जीवन जीने के लिए सारी बातें सीखने में हमनें कितना ही समय खर्च किया पर खुद जीवन के बारे में कितना कम जानते हैं। संसार में आने के बाद जो काम हमने सबसे पहले किया वह था एक गहरी सांस लेना और इस संसार में जो अंतिम काम हम कर रहे होंगे वह है सांस छोड़ना। पहली बार सांस लेने और आखिरी बार सांस छोड़ने के बीच जो कुछ भी है, उसे हम जीवन कहते हैं। हमने कभी भी अपनी सांस पर ध्यान नहीं दिया। शरीर और मन के बीच का संपर्क सूत्र है सांस और इसके द्वारा तुम सचमुच मन को वर्तमान क्षण में टिका सकते हो। श्वास पर ध्यान बनाए रखने का दूसरा साधन है सेवा। जब तुम सेवा को जीवन का परम ध्येय बना लेते हो, तब भय दूर होता है और मन केंद्रित हो जाता है।


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