जीवन की कला
मनुष्य ने स्वयं अपने साथ यह क्या कर लिया है। वह क्या होने की क्षमता लेकर पैदा होता है और क्या होकर समाप्त हो जाता है। जिसकी अंतरात्मा दिव्यता की ऊंचाइयां छूती, उसे पशुता की घाटियों में भटकते देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूलों के पौधे में फूल न लगकर पत्थर लग गए हों और जैसे किसी दीये से प्रकाश की जगह अंधकार निकलता हो। ऐसा ही हुआ है मनुष्य के साथ। इसके कारण ही हम उस सात्विक प्रफुल्लता का अनुभव नहीं करते हैं, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हमारे प्राण तमस के भार से भारी हो गए हैं। मनुष्य का विषाद, वह जो हो सकता है, उस विकास के अभाव का परिणाम है। शिक्षा मानवात्मा में जो अंतर्निहित है उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम और उपाय है। कभी सुकरात ने कहा था, मैं एक दाई की भांति हूं। जो तुममें अप्रकट है, मैं उसे प्रकट कर दूंगा। यह वचन शिक्षा की भी परिभाषा है।
मनुष्य में शुभ और अशुभ दोनों ही छिपे हैं। विष और अमृत दोनों ही उसके भीतर हैं। पशु और परमात्मा दोनों का ही उसके अंदर वास है। यही उसकी स्वतंत्रता और मौलिक गरिमा भी है। वह अपने होने को चुनने में स्वतंत्र है। इसलिए सम्यक शिक्षा वह है जो उसे प्रभु होने की ओर मार्ग दर्शन दे सके। यह भी स्मरणीय है कि मनुष्य यदि अपने साथ कुछ भी न करे, तो वह सहज ही पशु से भी पतित हो जाता है। पशु को चुनना हो तो स्वयं को जैसा जन्म से पाया है, वैसा ही छोड़ देना पर्याप्त है। उसके लिए कुछ और विशेष करने की आवश्यकता नहीं है। वह सहज और सुगम है। नीचे उतरना हमेशा ही सुगम होता है। किंतु ऊपर उठना श्रम और साधना है। वह अध्यवसाय और पुरुषार्थ है।
वह संभावनाएं संकल्प और सतत चेष्टा से ही फलीभूत है। ऊपर उठना एक कला है, जीवन की सबसे बड़ी कला वही है। प्रभु होने की इस कला को सिखाना शिक्षा का लक्ष्य है। जीवन शिक्षा का लक्ष्य मात्र आजीविका नहीं। जीवन के ही लिए आजीविका का मूल्य है।
आजीविका अपने आप में तो कोई अर्थ नहीं रखती है, पर साधन ही अज्ञानवश अनेक बार साध्य बन जाते हैं। ऐसा ही शिक्षा में भी हुआ है। आजीविका लक्ष्य बन गई है। जैसे मनुष्य जीने के लिए न खाता हो, वरन खाने के लिए ही जीता हो। आज की शिक्षा पर यदि कोई विचार करेगा तो यह निष्कर्ष अपरिहार्य है। क्या मैं कहूं कि आज की शिक्षा की इस भूल के अतिरिक्त और कोई भूल नहीं है, लेकिन यह भूल बहुत बड़ी है। यह भूल वैसी ही है, जैसे कोई किसी मृत व्यक्ति के संबंध में कहे कि इस देह में और तो सब ठीक है, केवल प्राण नहीं है। हमारी शिक्षा अभी ऐसा ही शरीर है, जिसमें प्राण नहीं है, क्योंकि आजीविका जीवन की देह मात्र ही है। शिक्षा तब सप्रमाण होगी,जब वह आजीविका ही नहीं, जीवन को भी सिखाएगी।
जीवन सिखाने का अर्थ है, आत्मा को सिखाना। मैं सब कुछ जान लूं, लेकिन यदि स्वयं की ही सत्ता से अपरिचित हूं, तो वह जानना वस्तुतः जानना नहीं है। ऐसे ज्ञान का क्या मूल्य जिसके केंद्र पर स्व-ज्ञान न हो स्वयं में अंधेरा हो, सारे जगत में भरे प्रकाश का भी हम क्या करेंगे। ज्ञान का पहला चरण स्व-ज्ञान की ही दिशा में उठना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का अंतिम लक्ष्य वही है और व्यक्ति जिस मात्रा में स्व-ज्ञान को जानने लगता है, उसी मात्रा में उसका पशु विसर्जित होता है और प्रभु की ओर उसके प्राण प्रभावित होते हैं।
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