कर्म के प्रकार

By: Sep 12th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

महात्माओं ने कर्म तीन प्रकार के बताए हैं संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म व क्रियमाण कर्म।  संचित कर्म- मनष्य वह प्राणी है, जिसकी सूक्ष्म शरीर रूपी कोठरी में विभिन्न प्रकार के संस्कार भरे पड़े रहते हैं और ये संस्कार जन्म-जन्मांतर के एकत्रित हैं, क्योंकि मनुष्य जो-जो कर्म करता है, वही संस्कार बनकर इसके सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर रूपी जखीरे में इकट्ठे होते रहते हैं। इस तरह अनेक जन्मों के कर्मों का खजाना मनुष्य के सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के अंदर जमा होकर पड़ा रहता है और जीव इस कर्मों के जाल में उलझता चला जाता है।

अब इस कर्मों के जाल को बनाने वाली मनुष्य की अपनी ही अज्ञानता है। संचित नाम इकट्ठे होना अथवा जखीरे बनाने का है। इस प्रकार जो-जो कर्म जीव द्वारा किए जाते हैं और इस तरह से अनेक जन्मों से इकट्ठे हो-हो कर मनुष्य के सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के अंदर संगृहीत होकर पड़े रहते हैं, वे ही संचित कर्म कहलाते हैं।

प्रारब्ध कर्म- जो कर्म संचित कर्मों के भंडार में से निकालकर एक जन्म के भोगने के लिए जीव को मिलते हैं, इन्हें अध्यात्म में प्रारब्ध कर्म कहते हैं और इन कर्मों का भंडार जीव के अष्ट दल कमल में होता है। अतः जो जीव की मौजूदा हालत होती है, इन्हीं प्रारब्ध कर्मों के आधार पर ही होती है और जब इन प्रारब्ध कर्मों को भोगता हुआ जीव इन कर्मों को समाप्त कर लेता है तब इसका भौतिक शरीर छूट जाता है और शेष बचे हुए संचित कर्मों के इसी भंडार से जीव को अगले जन्म के लिए और प्रारब्ध कर्म मिल जाते हैं।

जिसके अनुसार जीव फिर किसी दूसरे शरीर को धारण करके इन कर्मों को भोगना शुरू कर देता है। आध्यात्मिक भाषा में इस नियम को धर्मराज की अदालत के नाम से भी जाना जाता है, जो प्रकृति के नियम के अनुसार हमारे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के अंदर बैठकर इंसाफ करती रहती है और इस प्रकार जन्मों का यह चक्कर चलता ही रहता है। अध्यात्मवाद में इसे आवागमन के चक्कर के नाम से भी संबोधित किया जाता है। इन प्रारब्ध कर्मों को कोई बदल नहीं सकता। इन कर्मों के फल जीव को अवश्य भोगने पड़ते हैं। जिस प्रकार फसल काटनी पड़ती है। आदि ग्रंथ में भी फरमाया है।

जेहा बीजे सो लुणे कर्मा संदड़ा खेतु।

नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभु देतु।।

शुभ और अशुभ कर्म पूरबले, रती घटे न बढ़े।

होनहार होवे पुनि सोई, चिंता काहे करे।

साधुन सेवा कर मन मेरे, कोटिन व्याधि हरे।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, सहज में जीव तरे।

क्रियामाण कर्म- क्रियामाण कर्म वे कर्म हैं जिन कर्मों को जीव वर्तमान शरीर में रहते हुए करता है। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति है जिसने बहुत सा रुपया बैंक में जमा किया हुआ है और जमा की गई राशि में से कुछ राशि बैंक में से अपने प्रतिदिन के खर्च के लिए निकलवा लेता है ताकि अपना रोजमर्रा का खर्चा पूरा कर सके और वह अपने दिन भर की कमाई को बैंक में साथ ही साथ जमा भी करवाता रहता है जिसके फलस्वरूप बैंक में उसकी जमाराशि बढ़ती चली जाती है। इस नियम के अनुसार कर्मों का सिलसिला चलता रहता है। अतः संचित कर्म सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर रूपी बैंक में कुल जमा की हुई राशि है।


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