कीर्ति चक्र क्यों चीखा

By: Sep 23rd, 2020 6:30 am

यह धरना हिमाचल की पृष्ठभूमि और उन गौरवान्वित अध्यायों का है, जो हमारे धरातल को शौर्य से सींच देता है। गर्व के क्षण कभी क्षणभंगुर नहीं हो सकते, लेकिन हजारों घोषणाओं के मलबे के नीचे अगर कहीं कीर्ति चक्र चीखता रहा तो हमारे बहरे हो चुके कानों को कौन पकड़ेगा। क्या यह प्रदेश अठारह साल पहले देश के लिए कुर्बान हुए अनिल चौहान के ऋण को रौंद कर केवल लफ्फाजी करता रहेगा। आखिर शहीद की मां को राजभवन पहुंचकर राष्ट्रीय शौर्य से चमक रहे कीर्ति चक्र को लौटाने की नौबत क्यों आई और वे कौन सी व्यस्तताएं रहीं, जिनके कारण अठारह साल गुजर गए। कांगड़ा के जयसिंहपुर क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाली एक मां के आंचल में बेटे की शहादत का गर्व क्यों दर्द बनकर उभरा और पूरे परिवार को असहज-असामान्य कदम उठाकर शिमला के बंद कानों को खोलने का मार्ग अख्तियार करना पड़ा। इन अठारह सालों के सफर में अनिल चौहान की तरह कई हिमाचली गबरू देश के लिए शहीद हुए, मोमबत्तियां जलाई गईं होंगी, घोषणाओं के लबादे में नेताओं ने जुबान लंबी की होगी, लेकिन सत्य यह है कि सियासत सिर्फ एक अवसरवाद है। हिमाचल का ही जिक्र करें, तो प्रदेश में कई स्कूल-कालेज या अन्य संस्थान मिल जाएंगे, जिनका अलंकरण किसी न किसी नेता के नाम से हो गया होगा।

यह सूची उस गौरव से बड़ी क्यों हो गई, जो प्राणों की आहुति देकर देश के नाम हुआ। अभी कुछ दिन पहले ही इसी तरह जिलाधीश कांगड़ा राकेश कुमार प्रजापति के हस्तक्षेप से अशोक चक्र प्राप्त शहीद सुधीर वालिया की प्रतिमा का अनावरण हुआ, वरना यह उल्लेखन न होता। प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ की धरती पर शहीदों के सम्मान की परंपराएं न स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं और न ही इनसे जुडे समारोह देखे गए। पूरे प्रदेश में मेलों और सांस्कृतिक समारोहों की शृंखलाओं के बीच शहीदों की याद के उत्सव अगर भाषा-संस्कृति विभाग ढूंढ पाता तो भी इतिहास गवाही देता। ऑनलाइन विमर्श की भूमिका में कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग, दो पल शहीदों के नाम भी चुन लेता तो हिमाचल का जर्रा-जर्रा ऋणी हो जाता। ऐसी कोई पुस्तक या शोध पुस्तिका सामने नहीं आई है, जो हिमाचल के गौरव का संरक्षण करती। विडंबना यह भी कि सैनिक कल्याण बोर्ड तथा पूर्व सैनिक निगम यूं तो राजनीतिक नियुक्तियों के पैरोकार रहे, लेकिन ऐसी फाइल गुम जाती है, जिसमें शहीद अनिल चौहान के नाम स्मारक बनाने तथा उनके गांव के स्कूल को स्तरोन्नत करने के सरकारी हस्ताक्षर हुए होंगे। आश्चर्य यह कि पिछले तीन सालों से धर्मशाला में स्थापित शहीद संग्रहालय के दरवाजे खोलने तक की इच्छाशक्ति तक दिखाई न दी। करीब दो माह पहले पेड़ गिरने से क्षतिग्रस्त हुए वहां प्रदर्शित सैन्य विमान की किसी ने सुध तक न ली और न ही सरकार की ओर से शहीद स्मारक समिति को कोरोना काल  में प्रतिष्ठित स्मारक की देखभाल के लिए किसी ने वित्तीय मदद की।

बेशक मुख्यमंत्री जयराम ने व्यक्तिगत रुचि दिखाते हुए शहीद के परिवार को मान-सम्मान दिया और उन तमाम वादों की फाइल खोल दी, जो समय-समय पर हुए, लेकिन विभागीय कार्यभार की नई व्याख्या होनी चाहिए। सैनिक कल्याण बोर्ड तथा पूर्व सैनिक निगम को महज सजावटी बने रहने के बजाय, उस गौरव से जोड़ा जाए, जो हिमाचल की पृष्ठभूमि को सैन्य परिवारों से जोड़ता है। विडंबना यह है कि पिछले कुछ समय से प्रदेश का गौरव राजनीतिक हस्तियों के बनते-बिगड़ते सफर से जुड़कर रह गया है या विषयों के विषाद में राज्य का समर्थन राजनीतिक हो गया। हमारा मानना है कि प्रदेश को कंगना मानकर अगर सियासी और सामाजिक युद्ध छेड़ा जा सकता है, तो जिस सरहद पर देश का खून बलिदान की कहानी लिखता है, उस कुर्बानी का कर्ज पीढि़यों तक रहेगा। शहीद अनिल चौहान की मां के हृदय का अंश हमेशा बेटे की शहादत के साथ देखा जाएगा, लिहाजा उनके द्वारा उठाए गए विषय की प्रतीकात्मक पहचान हिमाचल के हर सैन्य परिवार के प्रति सच्ची आदरांजलि तभी होगी, अगर हम सब मिलकर शहीदों की याद में दीया जलाएं।


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