कोविड का फंदा

By: Sep 25th, 2020 7:06 am

कोरोना के भयावह चित्रण में शिमला के अस्पताल में आत्महत्या के दौरान इस्तेमाल किया गया फंदा ही नहीं है, बल्कि तनाव और दबाव में जिंदगी का हर दस्तूर सन्न है। यह अजीब घटना है कि शिमला के कोविड अस्पताल में चौपाल की एक महिला ने आत्महत्या को अपना लिया। हालांकि कोविड के कारण मौत के आंकड़े अब जिंदगी के भय को बढ़ा देते हैं, फिर भी अस्पताल के प्रबंधों में यह घटना एक भयानक टीस छोड़ जाती है। यहां कई मानवीय पहलू उभरते हैं और यह भी कि स्वास्थ्य क्षमता के प्रति इनसान क्यों अविश्वास करने लगा। क्यों लोग डरने लगे हैं या क्यों कोरोना काल में चिकित्सा से जुड़ी सेवाओें के भंवर बन रहे हैं। क्या कोरोना काल के विस्तार ने व्यवस्था को थका दिया है या अब सारी आफत नागरिकों के कंधों पर आ गई है। यह भी हो सकता है कि आरंभ में जिस संवेदना से कोरोना को देखा जा रहा था, उस बड़े प्रश्न को अब इतना छोटा कर दिया गया है कि समाज के भीतर यह महज रोग नहीं, आपदा का सीधा अनुभव है। यह इसलिए भी क्योंकि आरंभिक दौर में आपदा नियंत्रण के सख्त पहरे अब खिसक कर केवल निजी चेतावनियों के दायरे बन गए। हम यह नहीं कह सकते कि किन हालात में एक कोविड मरीज खुद को ऐसी सजा देता है, लेकिन इसके इर्द-गिर्द के मनोविकार को देख सकते हैं। जाहिर तौर पर कोविड महामारी का सबसे बड़ा प्रकोप हमारे आसपास ठहर गई जिंदगी व आर्थिक विराम में चिन्हित है और इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव दिखाई दे रहा है। इस दौरान घटी तमाम आत्महत्याओं के विवरण, मौत के आंकड़ों के साथ-साथ डूबते व्यापार और छीने जा चुके रोजगार की कहानियों का एक वीभत्स चेहरा बन कर घूम रहे हैं।

 मानसिक विकृतियों का मिलाजुला प्रभाव सामाजिक आईनों को तोड़ रहा है। कुटुंब की भावना हो या सामुदायिक सहयोग की अभिप्रेरणा, इनसान ऐसी परंपराओं से अलग नकारात्मक चक्रव्यूह में अपने आसपास फैलते अविश्वास और उजड़ती आशाओं के आगे बौना हो चुका है। ऐेसे में यह तय है कि कोरोना के खिलाफ निजी रूप से आत्मशक्ति पैदा करनी होगी। अगर चौपाल की महिला की मानसिक स्थिति को सकारात्मक किया होता, तो शायद यह बदनुमा दाग अस्पताल की दीवारों पर चस्पां न होता। ऐसे में हर घर यह तय करे कि यह जंग सकारात्मक सोच की भी है। कुछ इसी तरह समाज के भीतर सकारात्मक कारण या बहाने पैदा किए जाएं। कई ऐसे प्रोफेशन, सामाजिक संगठन, सरकारी कार्यालय व मंच हैं, जो कुछ समय तक नकारात्मक बिंदुओं को नजरअंदाज कर सकते हैं। मसलन अदालती मामलों में लटके विवादों को विराम देकर ऐसी पहल हो कि कोरोना काल आपसी समझौतों का आधार बन जाए। माननीय अदालतें यह पहल कर दें, तो शायद अदालती आयाम में यह कहानी लिखी जा सके कि कोरोना काल ने इनसानी रिश्तों को संवरने का मौका दिया। कुछ इसी तरह डाक्टरी मुआयने अब मरीजों की जीवटता व जिजीविषा को बढ़ा कर उनमें मानसिक स्थिरता भर सकते हैं। सरकारी कार्यालय अगर इस अवधि में जनता के रेंगते विषयों का हल निकाल दें, तो आपात काल के भीतर कुछ हद तक जीने की आशाएं बढ़ जाएंगी।

सरकारें अब सरकारी सोच के बाहर निकल कर अपने फैसलों की दुहाई में राजनीतिक रणक्षेत्र को कुछ दिन छोड़ दें, तो कोविड के साइड इफेक्ट को कम किया जा सकता है। हिमाचल का ही जिक्र करें तो बाजारों के उड़े हुए माहौल, परिवहन और पर्यटन की जर्जर हालत तथा बेरोजगार हो चुके युवाओं की फाइल को पढ़ा जा सकता है। कोविड से केवल शारीरिक आपदा ही नहीं जुड़ती, बल्कि पूरे माहौल को कब्र में सुलाने का यह एक घटनाक्रम है। यहां लाखों सिसकियां, संघर्ष और संताप के किस्से हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से शायद चौपाल की महिला बच जाती, लेकिन वह इसलिए मरने को मजबूर हुई क्योंकि उसके पास जीने का बहाना कमजोर हो रहा था। ऐसे में बिखरे जिंदगी के बहानों को समेटने का आगाज और प्रयास करना चाहिए। यह केवल सरकार और व्यवस्था से जुड़ा प्रश्न नहीं, बल्कि समुदाय के भीतर टेढ़ी रेखाओं को सीधा करने का मंतव्य भी है। क्यों नहीं हम सब मिलजुल कर एक ऐसे आधार को पुष्ट कर लें, जहां कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन एक-दूसरे के प्रति विषाद और विवाद खत्म कर दें। सामाजिक सकारात्मकता से भी कोविड को हराने में मदद मिलेगी, वरना अशांत, असफल और अनिर्णायक होने के इस दौर में हर तरफ फंदे खड़े हैं।


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