निष्काम भाव से कर्म

By: बाबा हरदेव Sep 26th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

निःसंदेह जन्म तो मिलता है मां-बाप से, परंतु जीवन कमाना पड़ता है। मानो जन्म ले लेना एक प्राकृतिक घटना है जो इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि जन्म के बाद निष्काम कर्म करने पर अथवा अकर्म करने पर सही अर्थों में जीवन मिल सकता है। जन्म तो केवल महान जीवन की संभावना मात्र है। अर्थात लाइफ और सेल्फलैस लिविंग में मौलिक अंतर है। महात्माओं का कथन है कि मनुष्य कितने समय तक जीया इससे इसके वास्तविक जीवन और निष्काम जीवन जीने का कोई पता नहीं चलता।

मनुष्य कैसा जीवन जीता है, कैसे निष्काम कर्म करता है, इससे इसके असली जीवन जीने का पता चलता है। अतः जीवन जीने का संबंध लंबी आयु से कम है, बल्कि जीवन का महत्त्व तो ज्यादा निष्काम कर्म से जुड़ा है,क्योंकि जीवन का अस्तित्व संज्ञाओं से नहीं बनता, बल्कि जीवन क्रियाओं से निर्मित होता है। सिर्फ लफजों से न परखो आदमी के ज्ञान को, आदमी का कर्म होता है कसौटी ज्ञान की। अब वास्तविकता यह है कि शुभ और निष्काम कर्म का भाव तो मनुष्य जीवन में परमात्मा की प्राप्ति के बाद ही शुरू होता है। जब मनुष्य पूर्ण सतगुरु द्वारा धार्मिकता की सतत धारा को अनुभव करता है फिर मनुष्य का जीवन सुगंध से भर जाता है ऐसी सुगंध जो फिर कभी नहीं चूकती। ऐसी सुगंध को अध्यात्म में निष्काम कर्म के नाम से संबोधित किया जाता है।

यही कारण है कि पूर्ण सतगुरु सदा निष्काम कर्म पर ही जोर देता है। धर्म निष्काम कर्म है, लेकिन निष्काम कर्म, धर्म नहीं है। इनमें बड़ा अंतर है। यदि निष्काम कर्म धर्म है, तो फिर निष्काम कर्म धर्म से ऊपर हो गया, परंतु ऐसा नहीं है। इसलिए मनुष्य को पहले धर्मिकता के वास्तविक रहस्य को पूर्ण सतगुरु  से समझना और जानना होगा फिर मनुष्य निष्काम कर्म करने वाला अथवा अकर्म भाव में रहने वाला हो जाएगा। निष्काम कर्म फिर छाया की तरह मनुष्य के साथ-साथ चलेगा अर्थात मनुष्य ऐसे निष्काम कर्म में समा जाएगा। मजे की बात यह है कि मनुष्य फिर निष्काम कर्म करके इसके पीछे भी नहीं खड़ा होगा और न ही निष्काम कर्म का, परोपकार का, उपयोग करने के बाद इसे पीछे खड़ा होकर देखेगा।

अपितु इस अवस्था में निष्काम कर्म का उपयोग करके मनुष्य स्वयं पीछे हट जाएगा तथा मनुष्य के मन में फिर अकर्तापन का भाव आ जाएगा। मनुष्य यह चाहत भी नहीं करेगा कि कोई इसे निष्काम कर्म और परोपकार के लिए धन्यवाद दे। इस प्रकार के निष्काम भाव से किए गए कर्म को शब्द भी पूरी तरह नहीं कह पाते। ऐसा निष्काम कर्म तो मनुष्य के लिए एक आनंद का कारण होता है, उत्सव के समान होता है। अंत में यही कहना ठीक होगा कि जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति समर्पित और निष्काम भाव से किए गए कर्म को करता हुआ जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए वही जीवन ईश्वर की उपासना बन जाता है। इसका प्रत्येक कर्म एक प्रार्थना के समान होता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से निष्काम कर्म मनुष्य के लिए सबसे बड़ी संपदा है क्योंकि निष्काम भाव से कर्म करने वाला कर्मयोगी मनुष्य कभी भी अधूरा नहीं होता है।


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