परंपरा का निर्माण

By: स्वामी विवेकानंद Sep 5th, 2020 12:20 am

गतांक से आगे…

माता जी के नामों से संकल्प पूर्वक यह अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। ब्रह्मचारी कृष्णलाल महाराज इस अनुष्ठान के पुरोहित बने। तंत्रधारक का आसन ग्रहण किया। इस अनुष्ठान की समाप्ति पर पशु बलि न देकर मिष्ठान का नैवेद्य प्रस्तुत किया गया। सैकड़ों लोगों को भोजन कराया गया, अनेक ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया गया। इसके बाद लक्ष्मी पूजा और काली पूजा का अनुष्ठान हुआ। एक दिन स्वामी जी अपनी माताजी के साथ काली घाट गए। बचपन में एक बार मां ने स्वामी के बीमार होने पर मां से मन्नत मांगी थी कि ठीक होने पर भेंट चढ़ाऊंगी और पुत्र को मंदिर में लोट पोटाकर आऊंगी, लेकिन बाद में यह बात भूल गईं। लेकिन अब बेटे की बीमारी को देखकर उन्हें यह बात याद आ गई थीं, इसलिए मां ने बेटे से कहलवा दिया था। मां की आज्ञा पाकर स्वामी जी काली घाट की आदि गंगा में स्नान करके भीगे वस्त्रों से काली मां के चरण कमलों में तीन बार धरती पर लोटपोट हुए। इसके बाद प्रदक्षिणा करके होम किया।

स्वामी जी कहा करते थे मैं शास्त्र मर्यादा को खत्म करने नहीं, पुष्ट करने के लिए ही आया हूं। यही वजह थी कि वे शास्त्र परंपराओं का अनुमोदन और आचरण करते थे। अक्तूबर के महीने में रोग फिर बढ़ गया। उस समय प्रसिद्ध डाक्टर मि. सैंडर्स चिकित्सा करने लगे। सारे काम स्वामी जी को बंद करने पड़े। शिष्य और गुरुभाई विशेष तौर से सावधान होकर परिचर्या करने लगे। सन् 1901 में भारतीय राष्ट्रीय महासभा का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। भारत भर के प्रतिनिधि कलकत्ता और इनमें से अनेक स्वामी जी के दर्शनों के लिए बेलूड़ मठ आए। सभी हिंदी भाषियों के साथ स्वामी जी हिंदी में बात करते थे। स्वामी जी ने अनेक प्रभावशाली प्रतिनिधियों से कलकत्ता में एक विद्यालय की स्थापना पर बल दिया। इस विद्यालय में वेद, उपनिषद, दर्शन, धर्म, साहित्य आदि की शिक्षा देकर जीवनदानी युवकों की एक सतत परंपरा निर्र्माण करने का उनका विचार था। अनेक महानुभावों ने इस योजना में रुचि प्रकट की और सहायता का आश्वासन दिया, लेकिन स्वामी जी की यह अंतिम ख्वाहिश पूर्ण नहीं हो पाई।

इन्हीं दिनों जापान से दो विख्यात विद्वान मठ में पधारे। जापान में एक धर्म सभा करने का संकल्प लेकर स्वामी जी से मिलने आए थे। उनके  आग्रह पर अस्वस्थ होते हुए भी इस पुण्यकर्म में अपना योग देने के लिए स्वामी जी ने जापान जाना स्वीकार कर लिया। ये दोनों जापानी विद्वान मठ में ही निवास करने लगे।प्रतिदिन भगवान बुद्ध के पावन चरित्र और बौद्ध धर्म के संबंध में स्वामी जी से चर्चा चलने लगी। स्वामी जी ने प्रतिपादित किया कि बौैद्ध दर्शन हिंदू का विरोधी नहीं है, जैसा कि कुछ पश्चिमी विद्वान कहते हैं, अपितु उपनिषदों के ज्ञान कांड का आधार लेकर ही खड़ा हुआ था। जनवरी सन् 1902 को स्वामी जी जापानी विद्वान डा. ओकाकुरा का निमंत्रण स्वीकार करके उनके साथ बुद्ध गया की यात्रा पर गए। वहां से काशी जाने का प्रोग्राम बनाया। श्री रामकृष्ण की जन्मतिथि आते जानकर वे बेलूड़ मठ वापस पधारे। कश्मीर में उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया, लेकिन मठ में लौटते ही एकदम बिस्तर पर पड़ गए थे।   –


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