धान को बाजार नहीं
हिमाचली अस्मिता के राजनीतिक पैरोकार भले ही किसानों के हित में आदर्श उद्घोष करते रहें, लेकिन सत्य यह है कि अनाज की पैदावार बढ़ा कर भी यह वर्ग अपनी मेहनत को उजड़ते देखता है। कितने कृषि मंत्री हुए या मौजूदा दौर में किसान को शाबाशी देने वाले हाथ भी कम लंबे नहीं, लेकिन धान की पैदावार को हिमाचल प्रदेश में एक मंडी तक उपलब्ध नहीं। यह उस कृषि प्रधान या ग्रामीण राज्य का दस्तूर है जहां 76 प्रतिशत आबादी खुद को खेत की मिट्टी से जोड़ती है। कृषि परिदृश्य की विडंबना और क्या होगी कि राज्य को दस फीसदी जीडीपी जोड़कर भी किसान की मूल आवश्यकताएं उपेक्षित हैं। प्रदेश के मैदानी व मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों ने धान की पैदावार तो की, लेकिन उसके समर्थन में सरकार दिखाई नहीं दे रही। किसान बिलों के आंदोलन में कूदी सियासत या केंद्रीय योजनाओं के नए अवतार में प्रदेश सरकार को शायद ही यह खबर हो कि न तो पांवटा और न ही कांगड़ा के किसान के लिए अब फसल बेच पाना आसान है।
पंजाब की मंडियों ने हिमाचली किसान को एक तरह से निष्कासित कर दिया है, भले ही नए विधेयक की पैरवी में राष्ट्रीय परिकल्पना ऐसी बिक्री को असीमित करती हो। इसी तरह प्रदेश की गन्ना पैदावार की खरीद व राज्य में चीनी मिल न होने के कारण किसान की विवशताएं बढ़ जाती हैं। हिमाचल में आज भी अधिकांश खेती प्राकृतिक बारिश पर निर्भर करती है और मौसम से पैदा प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए जो पैदावार होती भी है, उसके लिए खरीद व्यवस्था नहीं। आश्चर्य यह कि कम इलाके में बोई जाने वाली मक्की की पैदावार भले ही गेहूं से अधिक है, लेकिन इस उपज को भी सरकारी नीतियों व योजनाओं का समर्थन नहीं। लिहाजा मक्की को उचित दाम नहीं मिलते। मक्की आधारित उद्योग स्थापित करें तो किसान की आय में सीधे बढ़ोतरी होगी। इसी तरह कांगड़ा के आलू उत्पादक को भी बार-बार ठगा गया, लेकिन चिप्स के लिए बेहतरीन पाए गए कृषि उत्पाद को आज तक उद्योग का सहारा नहीं मिला। ऐसे में हिमाचल की विडंबना यह भी रही कि भौगोलिक परिदृश्य में किसान से ताकतवर बागबान हो गया। बागबानी में भी क्षेत्रवाद रहा और यह राज्य सेब उत्पादन से पहचाना गया, जबकि निचले क्षेत्रों में आम, नींबू, किन्नू, लीची, पपीता, आड़ू, लीची व अन्य फलों की पैदावार से नई संभावनाएं विकसित हुई हैं। प्रदेश के उच्च हिमाचली तथा अति ठंडे इलाकों के फलों पर सियासत ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, लेकिन शिवालिक तथा मध्यम क्षेत्रों के किसान का दर्द आज भी अनसुना किया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं तो वर्तमान सरकार बताए कि धान उगाने वाला किसान किस मंडी में जाकर माथा रगड़े या जिस तरह पंजाब से बेइज्जत होकर हिमाचली कृषि उत्पादक लौटे हैं, उन्हें कब राज्य का प्रश्रय मिलेगा।
किसान आंदोलन करने वाली महासेवा हो या सीटू जैसे संगठन, खेत की खुशहाली तो पैदावार की खरीद गारंटी से ही है। प्रदेश में अगर गलगल खरीद केंद्र हो सकते हैं, तो धान खरीदने का उचित प्रबंध क्यों नहीं। हिमाचल की ग्रामीण एवं कृषि आर्थिकी के प्रति अगर हम इस तरह चलते रहे, तो किसान के नसीब नहीं जाग सकेंगे। खेती पहले ही हिमाचल में अति अलाभकारी धंधा है और यह इसलिए भी यहां किसान के पास न उपयुक्त जमीन और न ही पैदावार लेने लायक खेत का हिस्सा रहा है, लिहाजा इतनी कष्टकारी मेहनत के बावजूद अगर उसे बाजार में खड़ा होने का स्थान या व्यवस्था नहीं, तो इससे भद्दा अपमान और क्या होगा। कम से कम जिस दर्द से धान उत्पादक गुजर रहे हैं, उसे समझते हुए सरकार को तात्कालिक व दीर्घकालिक उपाय करने होंगे। खरीद व मंडी की वर्तमान व्यवस्था की शिकायतों के बीच हिमाचली किसान का वर्तमान नहीं सुधरा, तो पहले से खेत में छाई निराशा और उग्र होकर युवाओं को विमुख करेगी और प्रदेश आत्मनिर्भरता की डगर पर शायद ही दोबारा चल पाएगा।
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