खानदानी टकसाल: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

By: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं Oct 20th, 2020 12:06 am

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अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

सुबह की सैर के दौरान राम नाम जपते-जपते जब मैं ऊब गया तो अचानक, ‘‘चित्त भी मेरी पट भी मेरी, सिक्का मेरे बाप का’’ कहावत को वीर रस में डुबो कर गाने लगा। साथ चले पंडित जॉन अली फुटबॉल के रैफरी की तरह मुझे ऑफसाईड ़करार देते हुए बोले, ‘‘मियां, यह कहावत तो अब पुरानी हो रही। तुम कहां पहली सदी की हरी-भरी घाटियों में विचरण कर रहे हो? अब तो नैतिकता की उजाड़ वादियों में यह कहावत नई नज़म में तबदील हुई जा रही है।’’ उनकी उक्ति को सुनकर मैं ऐसे चौंका जैसे उनींदा विपक्ष बतोले बाबा के लगातार बजने वाले चिमटे के प्रहार से गाहे-बगाहे जाग उठता है।

मैंने अति जिज्ञासा से जोश में भर कर उनसे वैसा ही अटपटा व्यवहार किया जैसे तमाम फुटपाथिए एंकर किसी घटना को विवादास्पद बनाने के लिए वाहियात सवाल पूछते हुए आरोप लगाते हैं। ‘‘पंडित जी, भारत जैसे प्राचीन देश की नैतिकता की वादियां कैसे उजाड़ हो सकती हैं? आप बाहरी ता़कतों के साथ मिलकर विश्व गुरु को बदनाम करने की साज़िश रच रहे हैं।’’ जॉन अली गंभीर होते हुए बोले, ‘‘भोगी महंत मठ उजाड़। मैं कौन होता हूं साज़िश रचने वाला? आजकल जो देश में चल रहा है, वह किसी से छिपा नहीं। सभी सीनाज़ोरों ने देश को अपना पर्सनल बाथरूम बना लिया है। पहले बताने पर मान जाते थे कि वे निर्वस्त्र हैं। अब वे इसे नया फैशन बताते हुए लड़ना शुरू कर देते हैं। देश में इतने धार्मिक समागम नहीं होते जितने जघन्य बलात्कार होते हैं। नौकरियों में मिलने वाले आरक्षण की तरह बलात्कार के शिकार स्वर्ण, दलित, हिंदू-मुस्लिम, अमीर-़गरीब में बांट दिए गए हैं। कोरोना भी ऐसे लोगों का क्या बिगाड़ लेगा?

 पहले सत्ता में बैठे मौ़कापरस्त किसी जलती चिता पर रोटियां सेंकने को कोशिश करते थे। अब तो रोटियां सेंकने के लिए ही चिताएं जलाई जा रही हैं। सत्ता के खेल में आम आदमी सि़र्फ आम बन कर रह गया है, जिसे कभी भी चूस कर फैंका जा सकता है। बुद्धिजीवी तो घर के बुज़ुर्ग की तरह कोने में पड़े रहते हैं। जिस बुद्धिजीवी का कहा या किया सत्ता की हनक में ़खलल डालता है, उसके नसीब में या तो गोलियां लिखी होती हैं या जेल। आम आदमी से जुड़े मुद्दे घूरे के वे ढेर हैं, जिसके भाग बारह बरस बाद भी नहीं बदलते। मुद्दों की बजाय अब गढ़े मुरदे उखाड़े जाते हैं जो बासी कढ़ी की तरह उबाल खाते रहते हैं। वादों की चौपाई पुष्पक विमान की चारपाई पर जा कर बिछती है। अच्छे दिन कब ओछे दिनों में बदल गए, पता ही नहीं चला। सिक्का तो उस व़क्त ़खानदानी हो गया था, जब देश में पहली बार आपातकाल घोषित हुआ था। यह ़खानदानी सिक्का उस व़क्त तक चलता रहा जब तक अच्छे दिनों की टकसाल नहीं खुली थी। यह कहावत बदल चुकी है। अब सत्तानशीं कहते हैं चित्त भी मेरी पट भी मेरी, सिक्का मेरा ़खानदानी टकसाल हमारी पुश्तैनी। राम ने जीतने के बाद अपना यश भालुओं और बंदरों को अर्पित कर दिया था, लेकिन अब तो भालू और बंदर ही राजा हो गए हैं। बंधु, हर दिन के बाद रात आती है और हर रात के बाद दिन। याद रखना, जब व़क्त बदलता है तो टकसाल किसी और के नाम लिख दी जाती है।’’ इतना कहने के बाद पंडित जी फिर कहीं गहरे रपट गए और मैं सिक्के की चित्त-पट और टकसाल की ढुलाई में डूबे जा रहा था।


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