मन की एकाग्रता

By: स्वामी विवेकानंद Oct 31st, 2020 12:20 am

गतांक से आगे…

सारशांतः मन एकाग्र होता है अर्थात मन की अन्यान्य वृत्तियां शांत हो जाती हैं और एक विषय में चित्त रम जाता है। बहुतेरे ऊपरी आचार करने और विधि निषेध करने के जाल मानने में ही समय निकल जाता है। आत्मचिंतन की फुर्सत नहीं मिलती। दिन-रात विधि निषेध के चक्कर में पड़ने से आत्मा का प्रचार किस तरह होगा? जिसे जितनी आत्मानुभूति हो जाती है, उसका विधि निषेध भी उतना ही घट जाता है।

आचार्य शंकर ने कहा ‘निस्त्रैगुण्ये पथि विचरंता को विधिः को निषेधः’ यह संस्कार एक पिशाच सा है, मानो एक राज्य है और हमारा क्षुद्र अहं भाव इसका राजा है। इसे हटाकर, तनकर खड़े हो जाओ। काम, कांचन, मान और यश को त्याग दृढ़ता से ईश्वर को पकड़े रहो। अंत में हम सुख और दुख होने पर बिलकुल उदासीन होने लगेंगे। हृदय को समुद्र की भांति महान कर लो, संसार की छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठ जाओ। यहां तक कि अशुभ घटना होने पर भी खूब आनंद मनाओ। दुनिया को एक तस्वीर की तरह समझो। हमारे हृदय में प्रेम धर्म और पवित्रता का भाव जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे ही परिणाम में हम बाहर प्रेम धर्म और पवित्रता देखने लगते हैं। दूसरों के कामों की जो निंदा करते हैं वास्तव में वो अपनी ही निंदा है, फिर वृहत्त ब्रह्मांड भी तुम्हारे लिए अपने आप ठीक हो जाएंगे। बुद्धावतार में प्रभु ने कहा है कि अधिभौतिक दुखों का कारण जाति है फिर चाहे वह जन्मगत, गुणवत, धन या और किसी कारण से हो।

आत्मा में न स्त्री-पुरुष भेद है और न वर्ण, आश्रम आदि का भाव। जिस प्रकार कीचड़ से कीचड़ नहीं धुल सकता, इसी भेद बुद्धि द्वारा अभेद कैसे साधन हो सकता है। सभी प्राणी ब्रह्मस्वरूप हैं। प्रत्येक आत्मा मानो मेघ से ढका हुआ सूर्य है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में यह अंतर है कि कहीं तो सूर्य पर मेघ का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। मुक्ति और स्माधि आदि में सिर्फ ब्रह्म के कारण मार्ग से रुकावटें अलग हो जाती हैं। वैसे तो आत्मा सूर्य की तरह सर्वथा जाजवल्यमान है। अज्ञान मेघों ने सिर्फ उसे एक रखा है, उन्हीं मेघों को हटाने और सूर्य का प्रकाश होने देने में ‘शिद्दते हृदयग्रंथि’ वाली अवस्था प्राप्त होेती है। चंचलता और गंभीरता को एक में मिला दो। सबसे हिल मिलकर चलो। अहं भाव को दूर हटाओ। किसी संप्रदाय अथवा जत्थे के फेर में मत पड़ो। वृथा तर्क करना महापातक समझो।

बड़प्पन दलबंदी और ईर्ष्या को हमेशा के लिए विदा कर दो। पृथ्वी जैसे सब कुछ सहती है, उसी तरह तुम भी बर्दाश्त करना सीखो इतना कर सकने से दुनिया तुम्हारे वश में हो जाएगी। समुद्र जब स्थिर रहता है उसे ब्रह्म कहते हैं। वह शक्ति अथवा महामाया ही देश काल निर्मित स्वरूप पहले रूप में वह ईश्वर, जीव और जगत हैं और दूसरे रूप में ही अज्ञान और अज्ञेय। उसी निरूपाधिक सत्ता में ईश्वर, जीव और जगत यह त्रित्वभाव आया है। सारी सत्ता जो कुछ कि हम जान सकते हैं, यही त्रयात्मकत्व है, यही विशिष्टादैत है। जगजननी भगवती ही हमारे भीतर सोई हुई कुंडलियां हैं, उसकी उपासना किए बिना हम कभी अपने को नहीं पहचान सकते हैं।  जैसे घिसकर आग पैदा की जाती है, वैसे ही ब्रह्म को भी मथकर प्रकाश किया जा सकता है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App