नगर निगम बनाम शहरीकरण-1

By: Oct 29th, 2020 12:06 am

यकीनन हिमाचल के शहर बड़े हो रहे हैं और इसी आधार पर अगर नगर की व्याख्या में नगर निगम बढ़ रहे हैं, तो यह एक मांग की आपूर्ति है। मंडी, सोलन व पालमपुर जैसे शहरों के लिए नगर निगमों की खेप में कितनी खैरात और कितनी खिदमत है, इससे पहले यह समझना होगा कि प्रदेश के शहरीकरण को किस तरह नियोजित करें। नगर निगम अगर शहरी मांग की आपूर्ति हैं, तो अब तक की नीतियों व योजनाओं को खंगाल कर ढांचागत परिवर्तन, प्रबंधकीय कौशल तथा वित्तीय व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम भी करने होंगे। अंततः यह शहरी निकायों की स्वायत्तता से जुड़ा विषय है और इसे केवल सीमा विस्तार की पैमाइश में न देखा जाए। बहरहाल यह तय है कि नए नगर निगमों को नियमों से पहले तयशुदा चुनावों की परिपाटी में सियासत को अंगीकार करना है। ये तीनों शहर अपने नाम के साथ राजनीति के अहम केंद्र भी हैं, लिहाजा इनके नाम से जुड़े विधानसभा क्षेत्रों के लिए भी यह एक तरह के उपचुनाव ही होंगे। जाहिर तौर पर नए नगर निगमों की स्थापना से सियासत का विजयी चेहरा इसलिए भी भाजपा को शाबाशी देगा क्योंकि पालमपुर व सोलन से कांग्रेस के विधायक हैं, जबकि मंडी से अनिल शर्मा की विरासत पहले ही हाशिए पर है। ऐसे में नगर निगमों के गठन की पहली अग्निपरीक्षा सियासत के लिए एक नई तस्वीर व भूमिका पेश करेगी।

 यह दीगर है कि शहरी निकायों के चुनावों में जिस तरह के रोस्टर बनते हैं, उससे सामाजिक पूंजी का बिखराव कोई अनहोनी नहीं। जहां तक नगर निगमों की चुनावी प्रक्रिया या आधारभूत व ग्रास रूट की लोकतांत्रिक उम्मीदों का सवाल है, तो मेयर जैसे पद के लिए प्रत्यक्ष चुनाव हों तो कुशल पद्धति का निर्वहन होगा, वरना स्थानीय सुशासन की तहजीब भी सियासत की केंचुली में फंसी रहेगी। एक साथ तीन नए नगर निगमों के गठन से शहरी विकास विभाग को अपनी नई चुनौतियों व वित्तीय दबाव के अनुरूप परिवर्तन करने होंगे। शहरी प्रबंधन के असली मायने योजनाओं-परियोजनाओं की पूर्णतः से ही साबित होंगे। फिलहाल हिमाचल की शहरी व्यवस्था का कोई मॉडल तैयार नहीं हुआ, बल्कि पिछले चार दशकों से बने ग्राम एवं नगर योजना कानून का औचित्य भी शर्मिंदा है। बेशक नए नगर निगमों के गठन से शहरों का वर्गीकरण भी शुरू हुआ है और इस तरह शिमला के बाद चार अन्य नगर अपनी भूमिकाओं में रोजगार, आर्थिक विकास, नागरिक सुविधाओं और मनोरंजन व पर्यटन की दृष्टि से कुछ अलग कर पाएंगे, लेकिन इसके साथ क्षेत्र विशेष विकास एजेंसी यानी ‘साडा’ के तहत आए इलाकों की विफलताएं भी देख लें। राज्य की शहरी कल्पना को केवल पांच नगर निगम पूरा कर पाएंगे या अनियंत्रित व अव्यवस्थित शहरीकरण से प्रदेश सुरक्षित हो जाएगा, असंभव है। हर पर्यटक, धार्मिक व व्यापारिक स्थलों में विकास के लिए उत्साह, क्षमता तथा उम्मीदों में लगातार बढ़ोतरी के कारण शहरीकरण का विस्तार मुख्य मार्गों पर उतर आया है।

 शहर और गांवों के बीच फासले इतने कम और महीन हो गए हैं कि पंचायत क्षेत्रों को शहरों से भिन्न कर पाना कठिन है। ऐसे में जब तक पूरे प्रदेश पर एकसमान ग्राम एवं नगर योजना कानून अमल में नहीं आता है या विकास की परिपाटी को संबोधित नहीं करेंगे, हर विकसित हो रहे शहर की व्यथा को केवल नगर परिषद या निगम के दायरे में नहीं समेटा जा सकता। प्रदेश की शहरी आबादी का गठजोड़ गांव तक है, इसलिए राज्यभर को अभी से आठ से दस शहरी विकास प्राधिकरणों के दायरे में लाकर भविष्य की योजनाएं बनानी होंगी। इसी तरह तमाम मंदिरों का एक केंद्रीय ट्रस्ट बनाकर धार्मिक स्थलों के दायरे में आने वाले गांवों तक विशेष योजना के तहत विकास करना होगा ताकि बढ़ती आबादी की जरूरतों को पहचाना व संवारा जा सके। यह विडंबना है कि शहरी विकास को पहचाने बिना राजनीतिक आधार पर फैसलों को तरजीह मिल रही है, जबकि एक बड़ी बहस के तहत शहरीकरण को संबोधित करने की जरूरत है। शहरों के लिए लैंड बैंक, शहरी ट्रांसपोर्ट के विकल्प तथा नेटवर्क, शहर की आय बढ़ाने की अधोसंरचना, कानून-व्यवस्था के हिसाब से शहरी एवं ग्रामीण पुलिस व्यवस्था,कलस्टर कूड़ा-कचरा प्रबंधन, शहरी नियोजन विभाग की नई रूपरेखा तथा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत अहम सेवाओं में सहयोग की परिपाटी बनाए बिना शायद ही कुछ हासिल होगा। अब जबकि नए नगर निगम बनने का रास्ता साफ हुआ है या सरकार ने पहली बार शहरीकरण के दबाव को समझा है, तो शिमला की परिधि में ‘स्टेट कैपिटल जोन’ के तहत एक बड़े क्षेत्र को व्यवस्थित विकास के तहत लाना होगा।


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