परम कर्त्तव्य
यदि ध्यान से देखा जाए तो मनुष्य की पूरी जिंदगी शतरंज की बिसात बन कर रह गई है। जहां सब धोखाधड़ी चल रही है। हर व्यक्ति तर्कनिष्ठ दिखाई देता है। इसका कहना आज साधन और सुविधा जुटा ली जाए कल जी लेंगे। अब वास्तव में जो व्यक्ति किसी न किसी तरह केवल अपने जीने का प्रबंध ही करता रहता है वह स्वयं को ही धोखा दिए चला जा रहा है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वयं तो हानि से बचने के लिए उपाय करता रहता है, लेकिन दूसरों को लगातार हानि पहुंचाता रहता है। अब जब तक कोई व्यक्ति अपने ही लाभ की भाषा में सोचता रहता है, तब तक दूसरे को हानि पहंचाने की ही सोचेगा क्योंकि एक की विजय दूसरे की पराजय के बिना नहीं हो सकती। जैसे एक की तिजोरी तभी भरेगी जब किसी दूसरे की जेब खाली होगी। मानो प्रतिस्पर्धा अब आम जीवन का अंग बन चुकी है। ऐसे हालात में मित्रता तो केवल ऊपरी दिखावा और एक प्रकार का मुखौटा बन कर रह गई है और वास्तव में कर्त्तव्य का पालन बहुत दूर का स्वप्न प्रतीत होता है।
अब आम भाषा में फर्ज और गर्ज में वही रिश्ता है जो वृक्ष के बीज और उसके फल के बीच होता है और फिर भी विडंबना यही है कि फल तो सब लोग खाना चाहते हैं लेकिन बीज को बोने से और फिर बीज से उगे पौधे का पालन-पोषण करने की मेहनत से कतराते हैं। अब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इस प्रकार के फर्ज को सामने रखते हुए फर्ज को निभाने में कोई बहुत बड़ी कठिनाई नहीं है। हां आध्यात्मिक जगत में भी एक परम कर्त्तव्य रूपी संपदा है जिसे मनुष्य सिर्फ अपने ही लिए एकत्रित नहीं करता। यह परम संपदा तो आकाश की भांति है। मानो परम कर्त्तव्य तो गर्ज और शिकायत के भाव का अभाव है। यह तो अनुग्रह है जिसमें सब हिस्सेदार हैं। अतः परम कर्त्तव्य ही असली कर्त्तव्य है तथा यह निभाना एक कठिन कार्य है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि कि परम कर्त्तव्य पालक और धार्मिकता से युक्त मनुष्य की पहचान कैसे हो।
पहली बात तो यह है कि ऐसा व्यक्ति जीवननिष्ठ होता है, पूर्ण सतगुरु की अपार कृपा से वर्तमान में जीना सीख लेता है। यह अपने जीवन में ऐसी चीजों को बढ़ाता चला जाता है, जिनसे दूसरों को कभी भी हानि न पहुंचे अपितु लाभ प्राप्त हो। दूसरे इसके पास ईश्वरीय प्रेम का अथाह खजाना होता है, जिसे यह जितना भरता जाता है उतना ही अधिक यह प्रेम दूसरे को मिलने का उपाय होता है और मजे की बात यह है कि ऐसे मनुष्य के ईश्वरीय प्रेम का धन किसी दूसरे के ईश्वरीय प्रेम की निर्धनता नहीं बनता। ऐसे परम कर्त्तव्य को निभाने वाले मनुष्य की यदि प्रार्थना बढ़ेगी, तो ऐसा नहीं होगा कि दूसरे की प्राथनाएं छिन जाएं, बल्कि ऐसा होगा कि जब ऐेसे व्यक्ति की प्राथनाएं बढ़ेंगी तो दूसरी और प्राथनाएं भी पूर्ण हो जाएंगी। इसी प्रकार से ऐसे मनुष्य का जब सुमिरन गहरा होता है, तो दूसरों का सुमिरन अपने आप गहरा होने लगता है। अब यह अटल सच्चाई है कि जब कोई भी परम कर्त्तव्य निष्ठ व्यक्ति आध्यात्मिक शिखर की ओर बढ़ता है तब इसके चारों और ईश्वरीय प्रेम की तरंगें पैदा होनी आरंभ हो जाती हैं, जो सभी का सहारा बन जाती हैं। क्योंकि ऐसा व्यक्ति परमात्मा को केवल उम्मीद ही नहीं बनाता, आशा ही नहीं बनाता, कामना ही नहीं बनाता, बल्कि परमात्मा को पी-पी कर दिव्य स्वरूप हो जाता है। फिर ऐसा व्यक्ति जीवन में जो भी पाता है, यह सब में बांटता चला जाता है।
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