सुरेश सेन निशांत की दो कविताएं
आग एक मुझे आग चाहिए थी
जिसे सुलगाने के लिए
एक औरत झुकी थी चूल्हे पर
आग थी कि सुलगने में
वक्त ले रही थी
वहां एक बच्चा था
जिसकी आंखों से पानी झर
रहा था
उस आग के सामने
रोटियां पकने के इंतजार में
बेसब्र बैठा था बच्चा
आग सुलगाती स्त्री
और उसके आसपास फैली
पकती रोटी की गंध
और बेसब्र बैठा बच्चा
इतना शानदार दृश्य था
जिसमें मैं शामिल हुआ
और आग मांगना ही भूल गया
दो
आग को भड़काओ मत
रोकना आसान नहीं
आग मुझे दिखी भड़कती हुई
तीन
आग के पास नींद नहीं थी
आग के पास खुमारी भी नहीं थी
आग के पास दहकते अंगारे थे
जो जागते आदमी की आंखों में होते हैं
चार
आग को इज्जत दो
कि वह आग है
पानी की इज्जत दो कि वह
आग का सगा है
बच्चे को इज्जत दो
कि यह दोनों को उत्सुकता से
निहार रहा है
पांच
आग थी ह्वेन सांग की यात्राओं में
तिब्बत के पठारों को लांघते वक्त
उसे रास्ता दिखाती हुई
देती हुई तपिश
आग ही थी
जो थी उसके इरादों में
लौ की मानिंद जलती हुई
आग थी
उसके कंधों पर
घोड़ों की पीठ पर
किताबों की तरह
लदी हुई
आग थी
उस तेईस साल के
युवक की आंखों में
जिसका नाम भगत सिंह था
जो बुझती ही नहीं
जिसकी तपिश आज भी हमें
छूती रहती है
छह
आग है इसे संभाल कर रखो
अपने विचारों की तपिश में
आग है इसे संभाल कर रखो
ईमान की ताकत में
आग है इसे संभाल कर रखो
दबी है जो चूल्हे की राख में
आग है अच्छी कविताओं में
उसके पास बार-बार जाओ
आग उतनी ही जरूरी है
जितना प्यार
अपनी खुशियों के बीच
जलाए रखो एक अलाव
कि सभी को मिले तपिश
सभी ताप सकें अपने
ठिठुरते हाथ
सात
उसने जलते अंगारों को
हाथ में उठा कर
अपने हाथ जला लिए
तो इसमें आग का क्या कसूर।
निशान बाकी हैं
जाने वाले के निशान
अब भी बचे हैं बिस्तर पर
बिस्तर पर पड़ीं सिलवटें
उसकी बुझी बीड़ी और दवाइयां
यहीं रह गए हैं
कई स्वप्न भी।
बिस्तर खाली है
पर उसके सुख और दुख
गीत और प्यार से बोली गईं पंक्तियां
नहीं भूल पा रहा है घर का कोई
नहीं मिट पा रहे हैं उसके निशान।
किताब को लौटा गया है
कल एक पाठक पुस्तकालय में
पर उसकी उंगलियों के निशान
अब भी उपड़े हैं पृष्ठों पर
अब भी कई पंक्तियां
गूंज रही हैं पाठक के मन में
कुछ तो उसकी कापी में आकर
बस गई हैं सदा के लिए।
लेखक को नहीं पता
पाठक ने उसकी कहानी या कविता से
क्या क्या कहा
कितनी बार खुश हुआ
कितनी बार मुंह से निकली वाह वाह
कितनी बार सिकोड़ी नाक।
किताब को पाठक
लौटा गया।
अब भी कुएं पर रखी
बाल्टी और लोटे से
जल पीकर चला गया है पथिक
उसकी उपस्थिति के निशान
अब भी बचे रह गए हैं वहीं
वह जल जो पी गया वह
अब भी बतिया रहा है
कुएं के जल से
और दे रहा धन्यवाद
उस पथिक को।
जंगल से पेड़ जाए
आकाश से बादल
खेतों से फसल
डाली से चिडि़या
धरती से आदमी
सभी के निशान बाकी हैं
इस धरती पर।
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