अध्यात्म और विज्ञान

By: श्रीराम शर्मा Nov 21st, 2020 12:20 am

मनुष्य उतना ही जानता है जितना कि उसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। शेष सारा अदृश्य जगत का सूक्ष्म स्तरीय क्रियाकलाप जो इस सृष्टि में हर पल घटित हो रहा है, उसकी उसे ग्रंथों-महापुरुषों की अनुभूतियों, घटना प्रसंगों के माध्यम से जानकारी अवश्य है। किंतु उन्हें देखा हुआ न होने के कारण वह कहता पाया जाता है कि सब विज्ञान सम्मत नहीं है, अतः मात्र कोरी कल्पना है। विज्ञान की परिभाषा यदि सही अर्थों में समझ ली जाए, तो धर्म, अध्यात्म को विज्ञान की एक उच्चस्तरीय उस विद्या के रूप में माना जाएगा, जो दृश्य परिधि के बाद अनुभूति के स्तर पर आरंभ होती है। परमपूज्य गुरुदेव अपनी अनूठी शैली में वाङ्मय के इस खंड में विज्ञान के विभिन्न पक्षों का विवेचन कर ब्राह्मी चेतना की व्याख्या तक पहुंचते हैं, एवं तदोपरांत इस सारी सृष्टि के खेल को उसी का क्रिया व्यापार प्रमाणित करके दिखा देते हैं। यही वाङ्मय के इस खंड का प्रतिपाद्य केंद्र बिंदु है। सौरमंडल का एक ही अंग हमारी पृथ्वी है। अनेकानेक सौरमंडल इस सृष्टि में हैं, उसमें हमारी आकाश गंगा के ग्रहाधिपति सूर्य के मंडल में क्या इसी ग्रह में सुविकसित सभ्यता है या कहीं और भी है, इस पर अनेकानेक घटनाक्रम के साथ ब्राह्मीचेतना के समष्टिगत स्वरूप को समझाया गया है एवं भगवान को एक अनुशासन के रूप में स्थापित किया गया है। यही धर्म का विज्ञान सम्मत प्रतिपादन है और इसमें ढेरों प्रमाण ग्रंथों से एकत्र कर इस खंड में दिए गए हैं।

सौरमंडल के विराट रूप की व्याख्या करते हुए पूज्यवर प्रतिपादित करते हैं कि उस विराट में ही ईश्वरीय सत्ता ज्वाला के रूप में विद्यमान है एवं आत्मा एक चिंगारी के रूप में उसका एक घटक है। हर जीवात्मा को ब्रह्म के साक्षात्कार करने की अभीप्सा मन में रखते हुए समर्थ सत्ता को खोजने का परम पुरुषार्थ करना चाहिए। आस्तिक दर्शन का वैज्ञानिक आधार एवं यहां जो कुछ भी दिखाई पड़ रहा है वह व्यवस्थित व नियमबद्ध किस प्रकार है, इसे भलीभांति प्रमाणित करके इस खंड में समझाया गया है। समग्र वाङ्मय का प्रतिपादन एक ही है कि तथाकथित प्रत्यक्ष पर विश्वास करने वाले विज्ञान की अपूर्णता एवं अस्थिरता को दृष्टिगत रख बुद्धि पर, जो तरह-तरह के खेल, खेलना जानती है। धर्म और विज्ञान को जो एक दूसरे का विरोधी मान लिया गया है, वह न मानकर उन्हें एक दूसरे का पूरक समझते हुए प्रगति के क्रम को आगे बढ़ाना चाहिए। धर्म का अध्यात्म नियंत्रण भावनात्मक क्षेत्र पर है। उसके आधार पर ही चिंतन का परिष्कार होता है। इसलिए सर्वाधिक महत्त्व इसी बात पर दिया जाना चाहिए कि विचार पद्धति अध्यात्म के अंकुश तले विनिर्मित हो। यह सही होगी तो सारे निर्धारण ही होते चले जाएंगे। ऐसे तो हर कोई अपनी विचारधारा को दूसरों पर थोपने की निरंतर कोशिश में लगा रहेगा। वेद-पुराणों का अध्ययन ही सही मार्ग दिखा सकता है।


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