आस्था में लाश : निर्मल असो, स्वतंत्र लेखक

By: निर्मल असो, स्वतंत्र लेखक Nov 30th, 2020 12:05 am

लाश सामने पड़ी थी, विवाद उसकी आस्था पर उठ गया। अधिकांश प्रत्यक्षदर्शी यह मान रहे थे कि यह मौत केवल इसलिए हुई, क्योंकि बंदा भारतीय आस्था नहीं निभा पाया। एक हद तक वे ठीक ही कह रहे थे क्योंकि भारत में जीने के लिए कोई न कोई आस्था लाजिमी तौर पर अपनानी होगी। बच्चे जहां जन्म लें, उस अस्पताल की हालत पर आस्था रखें, न इसका कुछ बिगड़ेगा और न ही आपके बच्चे का। एक दिन आस्था के बल पर वह सरकारी स्कूल में पढ़ भी लेगा। यह आस्था का ही कमाल है कि हर साल देश की आधी से अधिक आबादी न बाढ़ में मरती है और न ही तूफानों में उलझती है। कितनी ही अंग्रेजों की बनाई सड़कें, रेल पटरियां, पुल तथा पुलियां जीवित हैं, क्योंकि भारत की आस्था इन्हें चला रही है। अब तक हम इतने माहिर हो गए हैं कि चीनी सामान को भारतीय आस्था से चलाने लगे हैं, बल्कि चीन के माल में भी हमारी आस्था बसती है। खैर लाश के वजूद के साथ मौजूद मुट्ठी भर लोग ऐसे भी थे, जो ऐसा मानते थे कि बंदा आस्था के बावजूद मर गया। उनकी दलील थी, ‘यहां जो लाश बना, उसने देश के हर हालात में आस्था रखी। उसके साथी भागते रहे, वह स्थिरता से भारतीय परिप्रेक्ष्य को संभाले रहा। उसने हर चुनाव से परिणाम, परिणाम से प्रतिनिधि, प्रतिनिधि से सरकार तक कभी संदेह नहीं किया। सरकार ने सपने देखने को कहा, उसने देख लिए। सरकार ने कहा देश में परिवर्तन आएगा, उसने हर दिन में परिवर्तन देखने का भरसक प्रयास किया। उसने कभी अपने वजूद की चिंता नहीं की क्योंकि उसकी आस्था कभी खुद के नसीब पर न होकर, देश के हालात पर थी। वह टूटी सड़कों पर मंजिलें गिनता रहा। यह उसकी आस्था का प्रश्न था कि देश बदनाम न हो, लिहाजा हर नेता में भगवान राम ढूंढता रहा।’ लाश को ठुकराने वालों की शंका बरकरार थी। उनको यह कतई मंजूर नहीं था कि भारत में मरने वाला उनकी रची व बसी आस्था से जाना जाए।

वे उसे इतिहास की गुमनामी में देख और समेट रहे थे, क्योंकि अब फैसला तो इसका भी होना था कि क्या देश की आस्था इतिहास से मैच करती है या नहीं। उन्हें लगा कि मरने वाला पुराने इतिहास का कचरा है, जबकि नया इतिहास तो हर चौक-चौराहों पर मूर्तियों के रूप में स्थापित है। दूसरी ओर लाश को आस्था से दूर जाते देख उसके पक्षधर बता रहे थे कि किस तरह वह आस्था के कारण झुकता रहा। वह हर बुत के आगे झुका, हर प्रशासन के आगे झुकते-झुकते वह रीढ़विहीन हो गया। अंततः अपनी जैसी बहुत सारी लाशों के बीच यह मरा हुआ भारतीय नागरिक फेंक दिया गया। लाश के लिए आस्था का अंतिम सफर और सफर की आस्था में गंगा का प्रवाह। बिना पहचानी गई दर्जनों लाशों के बीच हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध और सिख आस्था के प्रश्नों की तरह बह रहे थे और अकेली गंगा का विराट स्वरूप उन्हें अपनी कोख में समाहित कर रहा था। पहचान खोज रही वह लाश तेजी से बहने लगी। दूर से प्रत्यक्षदर्शी पुनः आस्था के प्रश्न पर मशगूल थे और इधर भूखे मगरमच्छ लाख पर झपट रहे थे। मर कर भी उसे नोचा जा रहा था, क्योंकि उसे जीवनपर्यंत मालूम नहीं हुआ कि वह जिंदा कब था। गंगा पुनः इसलिए आस्था का महासागर थी कि कोई बिना पहचानी लाश बनकर गंतव्य पा रहा था या ऐसी लाशों के कारण उसके प्रति आस्था बढ़ रही थी। बहस करने वाले फिर किसी लाश पर अटक कर देश और समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।


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