बहाने मुखर हैं-3

By: Nov 21st, 2020 12:06 am

देहरा के प्रांगण में हुई राजनीतिक घटना का विवरण किससे इनसाफ मांग रहा है और प्रश्न यह भी कि क्या जनता की अदालत के सामने नेता ही सर्वोपरि रहेंगे। पिछले दस सालों में अगर यही मुद्दा बलवान होता, तो शायद देहरा विधानसभा क्षेत्र को निर्दलीय विधायक की जरूरत नहीं होती। कुछ इसी तरह हिमाचल सरकार के गठन में जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री न होते। विकास के स्तंभ रहे पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा कभी चुनाव न हारते। इसी प्रदेश में तमाम मुख्यमंत्री एक मोड़ पर आकर क्यों हार गए या शांता कुमार जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री को अपने शहर की परिधि में नगर निगम या रज्जु मार्ग की स्थापना की अरदास क्यों करनी पड़ती। दरअसल राजनीतिक संकीर्णता से ओत-प्रोत हिमाचल अपने नेतृत्व का सीमांकन कर रहा है और इसी से वर्चस्व की दौड़ में विकास का नया क्षेत्रवाद पैदा हो रहा है। केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं बना, इसके लिए वर्तमान मुख्यमंत्री एक हद तक जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन इसके अन्य भागीदार भी राजनीतिक संकीर्णता के दोष से मुक्त नहीं हैं, बल्कि देहरा प्रकरण ने तो अभिव्यक्ति का नया रास्ता खोल दिया।

 हर किसी नेता को अपनी-अपनी सरकार या मुख्यमंत्री से गिला हो सकता है, लेकिन समग्रता में देखें तो अतीत में भी पुन्य और पाप से इतिहास भरा है। यह चाहे ओहदों का आबंटन हो, राज्यसभा का टिकट हो या विकास की प्राथमिकताओं का शृंगार हो, हिमाचल की हर सत्ता उत्केंद्रित रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकारों की निरंतरता में पूर्व सरकारों के फैसलों को भी प्रदेश हित में लागू किया जाता, लेकिन अब तो अपनी ही पूर्व सरकारों की प्राथमिकताएं उजड़ने लगी हैं। मंत्रियों के विभाग बदलते ही सारा नजारा बदल जाता है, जबकि यह प्रदेश पूरी सरकार को काम पर देखना चाहता है। जब सत्ता पक्ष के विधायक या सांसद खुद को हाशिए पर देख रहे हों, तो विपक्ष को मिले विधानसभा क्षेत्रों की जनता का कौन पैरोकार होगा। कभी वाईएस परमार ने छोटी-छोटी पहाड़ी रियासतों को जोड़ कर पर्वतीय विकास के मानक एकजुट ही नहीं किए, बल्कि विशाल हिमाचल की परिकल्पना में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों को प्रदेश में समाहित किया था, लेकिन इस इतिहास के विपरीत राजनीति खड़ी हो रही है। अब बात हिमाचल के अस्तित्व या हिमाचली अधिकारों की नहीं, बल्कि नेताओं के वर्चस्व की होने लगी है। अब हिमाचल के अर्थ में नेताओं की जागीरें पनपने लगी हैं। कमोबेश हर नेता की अपनी ही औलाद वारिस है, जबकि होनहार युवा प्रतिभाओं को कांग्रेस व भाजपा में एक जैसी निराशा हासिल होने लगी है। यह दीगर है कि शांता कुमार जैसे नेता इसका अपवाद रहे, लेकिन परिवारवाद की तहों में पूरी राजनीति कैद है। हिमाचल के राजनीतिक द्वंद्व अब पार्टियों के भीतर सुराख करते हैं, जबकि सत्ता और विपक्ष एक सरीखी संस्कृति में काम कर रहे हैं। यानी सभी नेता सत्ता के लाभार्थी तो होना चाहते हैं, लेकिन प्रदेश के प्रति न गहरी सोच, न इरादे और न ही स्वीकार्यता साबित कर पा रहे हैं। इसका असर सीधे हिमाचल की नीतियों पर पड़ रहा है। यही वजह है कि हर सत्ता को अपना पक्ष साबित करने के बजाय हमेशा असंतोष के मझधार में केवल कुछ बफादारों के चप्पू ढोने पड़ते हैं।

 नीतिगत अभाव व सरकारों की निरंतरता में सदभाव की कमी के कारण हर सरकार में जुंडलियां बन जाती हैं। यह नेताओं के व्यक्तिगत सोच का ही नतीजा है कि स्व. वाईएस परमार के बाद हिमाचल को सांस्कृतिक धरातल पर आजतक सुदृढ़ नहीं किया जा सका, कभी बिना चाहे यह हिंदी राज्य बना दिया गया, लेकिन जिस भावना से हिमाचल एक हुआ, उसकी राज्य भाषा के रूप में हिमाचली का प्राद्रुभाव नहीं हुआ। पैंतालीस साल सरकारी नौकरी का झांसा तो बना, लेकिन स्वरोजगार के लिए न शिक्षण और न ही प्रशिक्षण मुकम्मल हुआ। आज भी विस्थापन के दंश झेल रहे भाखड़ा-पौंग विस्थापितोें के बीच कोई पुनर्वास नीति नहीं बनी। हमें विकास चाहिए, लेकिन भू अधिग्रहण की कोई स्पष्ट नीति नहीं। विकास अब राजनीतिक इतिहास की तरह है, इसलिए हमीरपुर के सांसद के सिर पर केंद्रीय विश्वविद्यालय का बोझ पड़ा है, जबकि इसी विषय पर कांगड़ा के सांसद किशन कपूर फिर चुप्प हैं। आश्चर्य माने या विडंबना कहें, हिमाचल के लिए हर बार वन संरक्षण अधिनियम कभी राजनीतिक बचाव करता है, तो कभी सियासी प्रहार। वन संरक्षण अधिनियम के खिलाफ कम से कम कुछ तो कहा जाए या सत्ता जब चाहे फोरेस्ट क्लीयरंस की फाइल अटका दे। यह राजनीति का सिरदर्द है या सरकारों की सुविधा, इसका उत्तर अनुराग ठाकुर का गुस्सा नहीं हो सकता, बल्कि प्रदेश को अपनी नियति खुद तय करनी होगी।


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