बहाने मुखर हैं-4

By: Nov 23rd, 2020 12:06 am

राजनीतिक विस्तार में विकास का प्रस्तुतिकरण किस तरह रंग बदलता, इसका उदाहरण बने केंद्रीय विश्वविद्यालय की चौखट पर सजी बेडि़यां बता रही हैं। कमोबेश तीन सरकारों के तर्क व तरन्नुम में साझा होती खिचड़ी को हर चूल्हे में पका कर भी ज्ञात होगा कि हिमाचल में वन विभाग और इससे जुड़े अधिनियम किस तरह का ईंधन व सियासी प्रदूषण पैदा करते हैं। क्या वीरभद्र बनाम धूमल सरकार के पाटों में जयराम सरकार पिस रही है या यहां तक एक संस्थान का अस्थि विसर्जन होने लगा है। इसमें पाप और पुण्य तलाश करेंगे, तो हिमाचल की गंदी राजनीति में कई खलनायक नजर आएंगे। आश्चर्य यह कि हम इन्हीं से आशा, इन्हीं से अभिलाषा रखते हैं। विडंबना यह कि एक संस्थान की बदौलत कांगड़ा का चीरहरण आज भी हो रहा है,जबकि राजनीतिक बंटवारे में इसके कई भाग हो गए।

जरा गौर करें कि हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर ने विश्वविद्यालय के लिए खुद को दांव पर लगा दिया, लेकिन कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के सबसे अधिकतम मत बटोर कर सांसद किशन कपूर खामोश साधना में लीन हैं। राजनीति के भीष्म पितामह शांता कुमार की शायद अब कोई जवाबदेही नहीं रही, तो क्या सारे प्रश्नों का उत्तर वर्तमान सरकार के मुखिया जयराम ठाकुर को ही देना है और अगर यही हकीकत है, तो केंद्रीय वन मंत्रालय से मंजूरी कौन दिलाएगा। हिमाचल सरकार के पास दस्तावेजी तौर पर केंद्रीय विश्वविद्यालय की जमीन के टुकड़ों से भी महत्त्वपूर्ण कागज़ का वह टुकड़ा है, जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय का सबसे बड़ा अड़ंगा क्यों न माना जाए। राजनीति के सारे लटकों-झटकों से अलग सवाल यह कि केंद्रीय विश्वविद्यालय को अपने नाम जमीन चाहिए। जमीन रेखांकित है, लेकिन केंद्र का एक विभाग वन संरक्षण अधिनियम का हवाला देकर इसका केंद्रीय विश्वविद्यालय के नाम पर इंतकाल करने में असमर्थता दिखा रहा है। वन भूमि हस्तांतरण के ऐसे 31 अन्य मामले अगर अटके हैं, तो हिमाचल के तमाम सांसदों ने मुंह में पान दबाकर रखा है या  उनके हलक में कुछ अटका है।

 बेशक इसी एक मात्र पक्ष पर जिरह की तमाम सूइयां नहीं अटकी रह सकतीं। जब यूपीए बनाम हिमाचल की भाजपा सरकार या धूमल बनाम वीरभद्र सिंह सरकारें केंद्रीय विश्वविद्यालय पर बार-बार टकरा रही थीं, ठीक उसी के सामने आईआईटी मंडी, आईआईएम पांवटा साहिब, ट्रिपल आईटी ऊना, तकनीकी विश्वविद्यालय व आईआईएचएम हमीरपुर, एम्स बिलासपुर तथा तमाम मेडिकल कालेजों की जमीन संबंधी सभी प्रकार की अड़चनें दूर हो रही थीं। इसी दौर ने पालमपुर के सरकारी कालेज को परौर से चलते देखा, तो धर्मशाला स्थित हिमाचल भवन को बंद होते भी देखा गया। आज भी भूमि संबंधी अड़चनें दूर हो रही हैं। ऊना, मंडी, बिलासपुर तथा कुछ अन्य जिलों की बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीन साफ हो रही है, तो धर्मशाला में बजटीय आबंटन के बावजूद राष्ट्रीय खेल छात्रावास के छब्बीस करोड़ लैप्स होने के कगार पर हैं। कई मंत्रालयों ने अपनी योजनाओं-परियोजनाओं का रुख मोड़ा है, तो नेताओं के प्रभाव व आपसी भेदभाव स्पष्ट होते हैं। देहरा के मंच पर नायक बनने की होड़ ने राजनीतिक फासलों का उल्लेख किया है, जबकि सत्य यह है कि एक शिक्षण संस्थान ने आपसी वैमनस्य की नई तस्वीर खींच दी। यहां भौगोलिक विद्वेष व विध्वंस के तर्क गढ़ते देखे जा सकते हैं, तो राजनीति के अर्थों में सत्य को असत्य घोषित करने की ताकत भी आजमाई जा सकती है। न तब कोई मील पत्थर गढ़े गए जब धूमल सरकार के समय में पूर्व प्रस्तावित स्थल से अछूत होकर विश्वविद्यालय को घसीटते हुए हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की राजनीतिक तासीर मिल रही थी और न ही उस समय जब तत्कालीन मंत्री रविंद्र रवि के बयान यह घोषित कर रहे थे कि धर्मशाला में न जिगर है और न ही जमीन, बल्कि हिमाचल का यह भूखंड केवल भूकंप तथा बाढ़ के लिए उपयोगी है।

 सबसे आश्चर्यजनक चरित्र उस समय के विधायक व मंत्री किशन कपूर का रहा, जिन्होंने यह साबित करने में कोई देर नहीं लगाई कि उनके विधानसभा क्षेत्र में इस उद्देश्य के लिए एक इंच भी जमीन नहीं, जबकि दूसरी ओर धर्मशाला में पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा के आगमन ने न केवल माकूल जमीन जुटाई गई, बल्कि पूर्व सरकार के कई दावों की पोल भी खोल दी। अगर राजनीतिक धूर्तता नहीं होती, तो तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का धर्मशाला आकर भी प्रस्तावित स्थान का पूर्व निर्धारित दौरा न रुकता। बहरहाल इस मसले को शैक्षणिक आधार पर देखने व पुनर्विचार करने की जरूरत है। शिक्षा व शिक्षार्थियों का भला अगर देहरा परिसर में होता है, तो भी दृढ़ता से सांसद अनुराग ठाकुर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि कांगड़ा के सांसद व धर्मशाला के वर्तमान विधायक की इस पर मौन स्वीकृति रहेगी, लेकिन सर्वप्रथम केंद्रीय राज्य मंत्री होने के नाते वह पर्यावरण मंत्रालय की फाइल से लाल लकीर हटवा तो दें।


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