कांग्रेस की नियति यही नहीं

By: Nov 18th, 2020 12:06 am

कांग्रेस के भीतर असंतोष और सवालों का यह नया अध्याय है। कांग्रेस के आंतरिक मुद्दों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह एक राजनीतिक विचार का आंदोलन रहा है। लोकतंत्र में ऐसे संगठन बेहद अपेक्षित हैं। कांग्रेस के पक्ष में, लोकसभा चुनाव में भी, 12 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने मत दिया था। तो ऐसे राजनीतिक संगठन को खारिज कैसे किया जा सकता है? जिन कांग्रेस नेताओं, पूर्व केंद्रीय मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्रियों आदि ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी के भीतर कुछ परिवर्तनों के आग्रह किए थे, दरअसल वे ‘गद्दार’ नहीं थे। वे भी कांग्रेस प्रतिनिधि रहे हैं। पार्टी के लिए उन्होंने भी संघर्ष किया है और पार्टी की जड़ों को सींचा है। कांग्रेस महज एक परिवार का ही पर्याय नहीं है। यदि ऐसे नेता चिंतित सवाल उठाते हैं, तो वे भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी के ‘राजनीतिक एजेंट’ नहीं हैं। कांग्रेस की मौजूदा अवस्था पर विमर्श करने और कोई ठोस नीति तय करने के वे नेता भी पक्षधर रहे हैं। यदि कपिल सिब्बल सरीखा कांग्रेसी नेता सार्वजनिक रूप से मूल्यांकन कर रहा है कि शायद चुनावी पराजय को कांग्रेस ने अपनी नियति मान लिया है!

 देश के लोग अब कांग्रेस को प्रभावी विकल्प नहीं मानते। बिहार चुनावों में करारी हार और उपचुनावों में भी लगभग सफाए पर पार्टी में कोई विचार-विमर्श नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व और हम सभी जानते हैं कि समस्याएं क्या हैं? लेकिन कोई उन्हें सुनने और उन पर विचार करने को तैयार नहीं है। जाहिर है कि किसी भी राजनीतिक संगठन के ऐसे भीतरी हालात गुलाम नबी आज़ाद, कपिल सिब्बल, विवेक तन्खा और कार्ति चिदंबरम सरीखे कांग्रेसियों को चिंतित होने पर विवश करेंगे। यदि 2014 के बाद के राजनीतिक और चुनावी परिदृश्य का विश्लेषण करें, तो देश के सभी बड़े राज्यों में कांग्रेस या तो सत्ता के बाहर है अथवा अप्रासंगिक होती जा रही है। बिहार चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन 19 विधायक ही जीत पाए। अभी तो विधानसभा सत्र भी शुरू नहीं हुआ है, लेकिन महागठबंधन के सबसे बड़े दल-राजद-के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने हार का ठीकरा कांग्रेस पर ही फोड़ दिया है। 2014 भारतीय राजनीति में एक और परिवर्तन-वर्ष था, क्योंकि भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, लोकसभा चुनाव में, पहली बार प्रचंड बहुमत हासिल किया और कांग्रेस कुल सीटों का 10 फीसदी भी जीत नहीं पाई। कांग्रेस के हाशिए पर खिसकने की यह शुरुआत थी। उस वर्ष के बाद कांग्रेस ने पूर्वोत्तर में असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय आदि राज्य गंवाए। ये कांग्रेसी वर्चस्व के राज्य होते थे। सिर्फ  त्रिपुरा में करीब दो दशकों से वाममोर्चे की सरकार थी। बहरहाल उप्र, हिमाचल, उत्तराखंड और गोवा में भी कांग्रेस की चुनावी पराजय हुई। कर्नाटक में जद-एस तीसरे स्थान पर था और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन कांग्रेस ने जद-एस के साथ गठबंधन बनाकर सत्ता हथिया ली।

अंततः उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने वह सत्ता भी छीन ली और आज वहां भाजपा की सरकार है। गुजरात में कई दशकों से कांग्रेस सत्ता के बाहर है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में तो कांग्रेस लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है। पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकारें कैसे बनीं, उनकी अपनी ही कहानी है। पंजाब में डेढ़ साल बाद चुनाव हैं। महाराष्ट्र में सत्तालोलुप गठबंधन के तहत सरकार में कांग्रेस मौजूद जरूर है, लेकिन सत्ता के चेहरे शरद पवार और उद्धव ठाकरे ही हैं। जनादेश के हिसाब से कांग्रेस चौथे स्थान की पार्टी है। कांग्रेस इतनी कमजोर हुई है कि क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बन चुकी है और एक-एक, दो-दो सीट के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है। ऐसी स्थिति के बावजूद पार्टी का स्थायी राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं है और न ही उसे चुनने की कोई कवायद कार्यसमिति ने की है। सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यसमिति में बूढ़े, थके हुए या दरबारी किस्म के नेता हैं। उसके लिए चुनाव क्यों नहीं कराए जाते। मनोनीत नेता पार्टी का पुनरोद्धार कैसे कर सकते हैं? बहरहाल सिब्बल ऐसे नेता हैं, जो शीर्ष अदालत में गांधी परिवार और कांग्रेस के पुराने पैरोकार रहे हैं। वह यूपीए की केंद्र सरकार में भी मंत्री थे, लिहाजा उन्होंने कोई आकलन सामने रखा है या सवाल किया है, तो पार्टी के भीतर मंथन होना चाहिए।


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