हमारे ऋषि-मुनि, भागः 36 : श्रीविष्णु स्वामी

विरह व्यथा इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्होंने निर्णय भी कर लिया कि वह अपने शरीर को विरह की अग्नि में जलाकर राख कर देंगे। ठीक इसी समय विष्णु स्वामी का हृदय प्रकाश से भर गया। भगवतप्रेरणा हुई। आंखें खोलीं, तो भगवान सामने खड़े थे। जिसकी बड़ी चाह थी, उसे पा लिया। पीतांबरधारी, श्यामसुंदर को सामने पाकर हृदय आनंदपूर्ण हो गया। अश्रुधारा बहने लगी…

विक्रम संवत् से छह सौ वर्ष पूर्व द्रविड़ क्षेत्र में एक क्षत्रिय राज करता था। उनका मंत्री एक भक्त ब्राह्मण था। वह बहुत कठिन आराधना कर संतान प्राप्ति करने का उपाय करता रहा। अंततः जो बालक हुआ, उसी का नाम ‘विष्णु स्वामी’ रखा। काफी बाल्यकाल में ही इसमें अलौकिक गुण देखे गए। प्रतिभावान बालक देखने में भी बड़ा प्रिय था। उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। कुछ ही समय में इस बालक ने संपूर्ण वेद-वेदांग, पुराणादि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसे परमसुख की तलाश थी। इसके लिए विष्णु स्वामी ने मृत्युलोक से ब्रह्मलोक तक विचार किया, किंतु उन्हें अभीष्ट वस्तु के दर्शन नहीं हुए।

उपनिषदों की शरण

विष्णु स्वामी ने गहन अध्ययन किया तब बृहदारण्यक उपनिषद के अध्याय-4, ब्राह्मण-4 से निर्देश पाया। वे उपासना करने लगे। उन्हें प्रभु के साक्षात्कार पर पूर्ण विश्वास हो गया। दीर्घ समय तक श्रद्धापूर्वक उपासना की, मगर अभी भी लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सका।

अग्नि में जलने को तत्पर

विष्णु स्वामी भगवदवियोग में ऐसे लगे कि अन्न-जल को ग्रहण करना बंद कर दिया। इस प्रकार छह दिन बीत गए। शरीर बहुत कमजोर हो गया, किंत उत्साह पूर्ववत बना रहा। सातवें दिन का एक-एक पल बिताना कठिन हो गया। विरह व्यथा इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्होंने निर्णय भी कर लिया कि वह अपने शरीर को विरह की अग्नि में जलाकर राख कर देंगे। ठीक इसी समय विष्णु स्वामी का हृदय प्रकाश से भर गया। भगवतप्रेरणा हुई। आंखें खोलीं, तो भगवान सामने खड़े थे। जिसकी बड़ी चाह थी उसे पा लिया। पीतांबरधारी, श्यामसुंदर को सामने पाकर हृदय आनंदपूर्ण हो गया। अश्रुधारा बहने लगी। उन्हीं के श्रीचरणों में लेट गए। भगवान ने उठाया अपने हृदय से लगाया। स्नेहपूर्वक पीठ तथा सिर पर हाथ फेरा और वह भगवान की स्तुति में लीन हो गए।

गुह्यातम तत्त्व के रहस्य की प्राप्ति

विष्णु स्वामी के मन में उपनिषदों के प्रति जो कोई संदेह बना था, उसे ही दूर करने के लिए भगवान ने इन्हें अपने गुह्यतम तत्त्व का रहस्य भी बताया…सब मैं ही हूं। मैं ही सर्वगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, सविशेष-निर्विशेष सब कुछ हूं। सभी शंकाएं त्यागकर सर्वभाव से मेरा भजन कर। एक मूर्तिकार भी बुलाया गया। उसने भगवान के दर्शन किए। उसी के अनुरूप मूर्ति बनाई। भगवान इसमें प्रवेश कर गए। भगवान विष्णु स्वामी को इसलिए साथ नहीं ले गए, क्योंकि उन्होंने इनसे भक्ति का प्रचार करवाना था। अब इनका प्रिय मंत्र हो गया ‘श्रीकृष्ण त्वास्मि’। वे इसी मंत्र का जप किया करते थे। त्रिदंड संन्यास ग्रहण किया वृद्धावस्था आ जाने पर विष्णु स्वामी ने शास्त्र मर्यादा की रक्षा करते हुए त्रिदंड संन्यास ग्रहण कर लिया और समय आने पर नित्यधाम में प्रवेश कर गए।

                – सुदर्शन भाटिया