हिमाचली पीढ़ी के शिलालेख
हिमाचली युवा पीढ़ी के मजमून आए दिन प्रदेश के नाम अपनी दौलत सौंप जाते हैं और जहां राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय भूमिका में जज्बात के नित नए आलेख पढ़े जाते हैं। पिछले कुछ घंटों में दो हिमाचली युवाओं ने प्रदेश की चर्चा को अपनी भूमिका से सराबोर किया, तो राष्ट्र का इतिहास भी भुजाएं फैलाकर नमन करता दिखा। अरुणाचल प्रदेश में सीमा की रक्षा में तत्पर वीर सैनिक अंचित शर्मा ने शहादत का जाम पिया, तो न्यूजीलैंड की संसद का सदस्य बनकर डा. गौरव शर्मा ने भारतीय शोहरत का आयाम लिखा। इन दोनों उदाहरणों में हम हिमाचल के कई युग, अवसर, जज्बात और क्षमता का निखार देख सकते हैं। कहानी अंचित शर्मा तक इसलिए पहुंची क्योंकि यह राज्य घर में बच्चे नहीं वीर सैनिक पैदा करता है। हालांकि हिमाचली शहादतों के आंकड़ों का राष्ट्रीय मूल्यांकन नहीं होता और न ही प्रदेश के प्रकाशनों ने इन पात्रों का सही चित्रण किया, फिर भी एक अनुमान के मुताबिक देश की तीस फीसदी शहादतों में यह पर्वतीय प्रदेश अपना रक्त बहाता है। दूसरी ओर जिस संसार तक डा. गौरव शर्मा पहुंचते हैं, वहां राष्ट्रीय फलक चिन्हित होता है। न्यूजीलैंड तक हमीरपुर से शुरू हुई यात्रा का जिक्र केवल एक कहानी नहीं, बल्कि ऐसी अनेक कहानियों का उदय कमोबेश हर घर में हो रहा है।
सवाल यह उठता है कि इन दोनों किस्सों में प्रदेश का योगदान कितना है और समाज का दृष्टिकोण कितना है। जाहिर तौर पर ये दोनों बच्चे पैदा तो हिमाचल में हुए , लेकिन इनके हर कदम को प्रोत्साहन तथा जिंदगी का परिश्रम, घर-परिवार ने उपलब्ध कराया। डा. गौरव शर्मा अगर आज न्यूजीलैंड के सांसद बने, तो वहां तक उनकी निजी मेहनत, शोहरत, रसूख और व्यवस्था का चरित्र सहायक बना। उन्होंने हिमाचल के कितने आवरण उतारे या भारतीय मंजिलों के बाहर उगते आकाश को देखा, तो कहीं ईमानदार कोशिशों को उपहार मिला। डा. गौरव सरीखे कई अन्य हिमाचली युवा क्या अपने ज्ञान के क्षितिज को इसी तरह प्रदेश में रहते हुए चमका पाते या राजनीति का स्थानीय ढर्रा उन्हें ढो पाता। हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था किस तरह ईमानदार बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों-सैनिकों, सेवानिवृत्त अधिकारियों या अर्थशास्त्रियों को स्थानीय निकायों, विधानसभा या संसद में पहुंचने से रोकती है। दूसरी ओर हिमाचल के तमाम शिक्षण संस्थाओं के वजूद में ऐसी कामयाबी संभव है या हमने जमघट में कहीं अहम किरदार ही गुम कर दिया।
बेहतर होगा हर हिमाचली संस्थान अपने भीतर के गौरव को पहचाने व उसे आगे बढ़ने का मौका दे। हिमाचल ने देश के लिए एक और सपूत देकर यह साबित कर दिया कि पर्वत की तरह ही यहां का साहस चट्टानी है। विडंबना यह कि हमारी सैन्य पृष्ठभूमि को राष्ट्रीय पैमाने छोटा करके देखने लगे हैं। हर परिवार से सैनिक देने वाले प्रदेश को भर्तियों के कोटे में देखा जाता है, जबकि हिमाचली शहादतों के इतिहास में देश को देखना चाहिए। सैन्य प्रतिष्ठानों की दृष्टि से हिमाचल को दूर ही नहीं रखा गया, बल्कि डोगरा रेजिमेंट के मुख्यालय को भी वीरभूमि के करीब नहीं आने दिया गया। हिमाचल रेजिमेंट के गठन पर आज तक केंद्र की चुप्पी महसूस की जाती है, लेकिन राज्य को कमतर आंका जाता है। हिमाचल की सरकारें भी आज तक सैन्य पृष्ठभूमि के अनुरूप शैक्षणिक माहौल को रुपांतरित नहीं कर पाईं। डिफेंस स्टडीज पर आधारित कालेज व सैन्य सेवाओं में प्रवेश के लिए अकादमियों की स्थापना, आज की जरूरत है।
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