कश्मीर में ‘रोशन’ कब्जेबाज

By: Nov 26th, 2020 12:01 am

घोटाले और अवैध कब्जों का भांडा फूट चुका है। चेहरों से नकाब उतर कर असलियत की पोल खुल चुकी है। गैर-कानूनी ज़मींदारी बेनकाब हो चुकी है और खुलासा हो चुका है कि जम्मू-कश्मीर के हिस्से की ‘रोशनी’ किसने लूटी है? बेशकीमती सरकारी और जंगलात की ज़मीन को ही कब्जाने का यह बहुत बड़ा घोटाला है। संभवतः अभूतपूर्व भ्रष्टाचार है! बेशक सरकारी आकलन 25,000 करोड़ रुपए का है, लेकिन घोटाला उससे भी अधिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर षड्यंत्र का है। जंगलात की करीब 50 लाख कनाल ज़मीन पर पूर्व मुख्यमंत्रियों, पूर्व मंत्रियों और विधायकों, पूर्व नौकरशाहों, पूर्व बैंक चेयरमैन और उद्योगपतियों आदि ने अवैध कब्जे किए। बेशक केंद्र सरकार 3.42 लाख कनाल ज़मीन को हड़पने की बात कर रही है। आरोप है कि जम्मू के हिंदू-बहुल क्षेत्र को भी मुस्लिम-बहुल इलाका बनाने की सांस्कृतिक साजि़श रची गई। कमाल है कि यह घोटाला नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी की सरकारों में सिलसिलेवार जारी रहा और ज़मीन हड़पने की कोशिश में ‘कट ऑफ’ साल बदलते गए। अक्तूबर में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से यह भू-माफिया जमात बेपर्दा हुई। अब अदालत के आदेश पर ही सीबीआई जांच जारी है और ‘रोशनी’ छीनने वाले लाभार्थियों के नाम सरकारी वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दिए गए हैं। उनमें डा. फारूक और उमर अब्दुल्ला तथा उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नाम चौंकाते हैं। अब्दुल्ला परिवार की तीन पीढि़यों ने जम्मू-कश्मीर पर हुकूमत की है। फिर भी यह हवस और तृष्णा…! ‘रोशनी कानून’ 2001 में तब बनाया गया, जब मुख्यमंत्री डा. फारूक अब्दुल्ला थे।

उनके बाद मुफ्ती मुहम्मद सईद, गुलाम नबी आज़ाद और महबूबा मुफ्ती राज्य के मुख्यमंत्री बने। महबूबा सरकार में भाजपा भी बराबर की साझेदार थी। उसके भी पूर्व मंत्रियों और नेताओं के नामों पर धब्बे लगे हैं, लेकिन प्रत्येक कालखंड में यह अधिनियम जारी रहा और उसकी आड़ में जंगलात की ज़मीन पर अवैध अतिक्रमण भी होता रहा। कानून का मकसद था कि ज़मीन की खरीद हो और वह राशि पनबिजली परियोजनाओं पर खर्च की जाए। अनुमान था कि ऐसा करके 25,000 करोड़ रुपए उगाहे जा सकेंगे, लेकिन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने 2014 की रपट में उल्लेख किया था कि 2007-13 के बीच ज़मीन के अतिक्रमण को नियमित कर हस्तांतरित करने से सिर्फ  76 करोड़ रुपए ही उगाहे जा सके। बहरहाल केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का आरोप है कि 1998 में फारूक अब्दुल्ला ने 3 कनाल ज़मीन खरीदी थी, लेकिन कुल 7 कनाल 16 मरले ज़मीन पर कब्जा कर लिया। उस ज़मीन पर उनका खूबसूरत बंगला बना है। इसी तरह जम्मू और श्रीनगर में पार्टी मुख्यालय के लिए 3 कनाल 16 मरले प्रति के हिसाब से ज़मीन आवंटित कराई गई। फारूक की बहिन सुरैया मट्टू के हिस्से भी 3 कनाल से ज्यादा ज़मीन की ‘रोशनी’ आई। उन्हें उसकी कीमत 1 करोड़ रुपए चुकानी थी, जो आज तक नहीं दी गई है, ऐसा सरकारी रिकॉर्ड खुलासा करते हैं। फारूक वाली ज़मीन की कीमत भी 10 करोड़ रुपए से अधिक आंकी गई है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर के पूर्व मंत्रियों की दलील है कि उनके दादा ने ज़मीन खरीदी थी, जो उनके पिता के हिस्से में आई। पिता ने बच्चों के नाम बंटवारा किया, तो मौजूदा ज़मीन का टुकड़ा उनके हिस्से में भी आया। सभी आरोपी घोटाले से इंकार कर रहे हैं और आरोपों को सिरे से खारिज कर रहे हैं।

 सवाल है कि हाईकोर्ट ने 2001 के अधिनियम को ‘असंवैधानिक’ करार क्यों दिया? यदि कानून असंवैधानिक है, तो उसके तहत ज़मीन की पूरी खरीद-फरोख्त भी अवैध है। सवाल यह भी है कि जंगलात की वह ज़मीन बेचने की प्रक्रिया ही शुरू क्यों की गई? जंगल और वन की भूमि तो आदिवासियों और उन पर आश्रितों की है। यदि उस पर कब्जे किए गए हैं, तो सरकारें उन्हें खाली कराने में असमर्थ क्यों रही हैं? अतिक्रमण को मालिकाना हक में तबदील करने की योजना वैध और संवैधानिक कैसे हो सकती है? सिर्फ  यही नहीं, कृषि भूमि लगभग मुफ्त कैसे बांट दी गई? कश्मीर की शहरी ज़मीन पर भारी छूट देकर हस्तांतरित क्यों की गई? बिना भुगतान के ज़मीन का स्वामित्व कैसे दिया गया? ऐसे ढेरों सवाल ‘रोशनी घोटाले’ से उभर सकते हैं। जम्मू संभाग के आयुक्त और मुख्य वन संरक्षक ने उच्च न्यायालय को स्टेटस रपट सौंप दी है। अहम सवाल यह भी है कि क्या इसी घोटाले से बचने के लिए ‘गुपकार गैंग’ बनाया गया है और अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग बुलंद हुई है?


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