खेल संपत्तियों का रखरखाव

By: Nov 28th, 2020 12:06 am

हमीरपुर के सिंथेटिक ट्रैक को अपमानित करते इरादों ने फिर खलल डाला और खेल से खेलते खिलवाड़ ने सार्वजनिक स्थल को अपवित्र कर दिया। वर्षों की मेहनत और संकल्प ने जिस उद्देश्य के लिए सिंथेटिक ट्रैक बिछाया, उसके विपरीत इसके इस्तेमाल की शिकायतें बढ़ गईं और ताजा हाल यह कि किसी समूह ने दिवाली की रात्रि ट्रैक की मैट को आग से नुकसान पहुंचा दिया। खेल ढांचे में दिवाली का शगुन मनाते झुंड को वक्त से पहले न रोका-न टोका गया, क्योंकि खेल विभाग के पास ऐसा सामर्थ्य व बचाव नहीं था। खिलाडि़यों के लिए सिंथेटिक ट्रैक का महत्त्व किसी मंदिर से कम नहीं और न अभ्यास स्थल की गरिमा के लिए इस तरह की लाचारी सही है। पहले तो राज्य में खेल संपत्तियां ही अधूरी व माकूल नहीं और अगर इस तरह नुकसान पहुंचता है, तो विभागीय क्षमता का निरीक्षण करना होगा। हिमाचल की विडंबना यह है कि हर निर्माण में केवल ईंट, गारा, ठेकेदारी या बजटीय खाते देखे जाते हैं, जबकि हर इमारत के साथ विभागीय क्षमता व गरिमा नत्थी है। किसी न्यायालय परिसर का निर्माण, सब्जी मंडी के लक्ष्यों से भिन्न है और इसी तरह इनकी सुरक्षा के इंतजाम होने चाहिएं।

 जाहिर तौर पर खेल मैदान और सिंथेटिक ट्रैक में भी अंतर है। दोनों की देखभाल का तरीका और नजरिया भी अलग-अलग होना चाहिए। विडंबना यह है कि हिमाचल में बिना खेल नीति के ही ढांचागत उपलब्धियों में समाहित कसरतें इस मुकाम पर खड़ी हैं कि विभाग भी अपनी अमानत के काबिल नहीं। देखना यह होगा कि राकेश पठानिया की खेल नीति हमीरपुर के सिंथेटिक ट्रैक को आवश्यक सुरक्षा व क्षमता प्रदान करती है या नहीं। प्रदेश के अधिकांश मैदानों को क्षमतावान बनाने की दृष्टि से दीर्घकालीन खेल नीति की अति आवश्यकता है। यह कार्य एक केंद्रीय खेल प्राधिकरण बखूबी कर सकता है, लेकिन आज तक ऐसा सोच विचार ही नहीं हुआ। हरियाणा-पंजाब की तरह ही सोचें, तो खेल ढांचे के प्रति हिमाचल की अवधारणा सशक्त होगी। मणिपुर जैसे पर्वतीय राज्य की संगत में हिमाचल को यह एहसास हो सकता है कि परिवेश ने हमें किस तरह खेलों के लिए फिट रखा है। प्रदेश में खेलों के लिए उपयुक्त माहौल तथा खिलाडि़यों के लिए सम्मान अर्जित करने का रास्ता तभी मुकम्मल होगा, अगर खेल प्राधिकरण के जरिए अधोसंरचना का निर्माण, प्रशिक्षण तथा संरक्षण उपलब्ध होगा। पहली बार धूमल सरकार ने खेलों में हिमाचल का क्षितिज देखा और इस तरह हमीरपुर व धर्मशाला में सिंथेटिक ट्रैक बिछे, बल्कि धर्मशाला को खेल नगरी के भविष्य में देखा, लेकिन सारी व्यवस्थाओं को तकनीकी दक्षता से परिपूर्ण करने तथा खेल संपत्तियों का रखरखाव करने के लिए कोई एजेंसी नहीं बनी। हमीरपुर में तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी याद रखना होगा।

 शहर में ऐसी एक भी सार्वजनिक जगह व सामुदायिक मैदान विकसित नहीं हो पाया, जहां अनौपचारिक युवा, खेल व मनोरंजन गतिविधियां दैनंदिन रूप से चल सकें। लिहाजा मजबूरीवश ही सही, युवाओं को इधर-उधर ताक-झांक करनी पड़ती होगी। कमोबेश यह व्यथा हर शहर-कस्बे या देहात की भी हो सकती है। कभी गांव के स्कूल का मैदान हर तरह की गतिविधियों व आयोजनों का केंद्र स्थल होता था, लेकिन स्कूल अपनी इमारतों से इतने लद गए कि सीमित क्षेत्र भी चारदीवारी के भीतर संपत्ति बन गया। हमारा मानना है कि हर गांव व कस्बे में कम से कम एक सार्वजनिक या बहु-उद्देश्यीय मैदान विकसित करने के साथ-साथ हर शहर की चारों दिशाओं में चार सामुदायिक मैदान बनाए जाएं। ये मैदान निर्धारित खेल मैदानों व स्टेडियमों के अतिरिक्त तथा सार्वजनिक-सांस्कृतिक समारोहों या व्यापारिक मेलों और महापार्किंग के रूप में इस्तेमाल हों तो खिलाडि़यों के क्षेत्र में फिजूल की चहल-पहल नहीं होगी।


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