लोक साहित्य में शोध की आवश्यकता और महत्त्व

By: डा. अदिति गुलेरी Nov 1st, 2020 12:06 am

मो.- 9418130860

विमर्श के  बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -5

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी पांचवीं किस्त…

डा. अदिति गुलेरी, मो.-9816305643

लोकसाहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से होता है जिसकी रचना स्वयं लोक करता है। लोकसाहित्य उतना ही पुरातन और सनातन है जितना कि मानव जीवन। लोकसाहित्य मौखिक परंपरा से चला आया साहित्य है जिसमें मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्तियां, आचार-विचार, व्यवहार, रीति-रिवाज, रूढि़यां, धार्मिक विश्वास, राग-लोभ, द्वेष, प्रेम, विरह, वात्सल्य आदि भावनाएं सम्मिलित रहती हैं। यह साहित्य लोक की अनुभूतियों का साहित्य कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोकसाहित्य सर्वसाधारण जनता का होता है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान होती है। लोकसाहित्य लोक जीवन का जीता-जागता अनगढ़ और प्राचीनतम माध्यम है, जिससे लोक और जीवन में साहित्य का तादात्म्य संभव होता है। लोकसाहित्य किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं होता, अपितु इसके पीछे एक लंबी परंपरा निहित रहती है, जिसका संबंध तत्युगीन समाज से रहता है। लोकसाहित्य की भाषा शिष्ट और साहित्यिक भाषा न होकर साधारण आम बोलचाल की आंचलिक भाषा होती है। यदि किसी स्थान की संस्कृति का अवलोकन करना हो तो सबसे पहले वहां के लोकसाहित्य का विशेष रूप से अवलोकन करना आवश्यक होता है।

लोकसाहित्य के महत्त्व को किसी भी दृष्टि से कम नहीं आंका जा सकता। लोकसाहित्य को लिपिबद्ध करने का प्रयास काफी वर्षों से किया जा रहा है और अनेक ग्रंथ भी संपादित रूप में सामने आए हैं, परंतु अब भी मौखिक लोकसाहित्य बहुत बड़ी मात्रा में असंग्रहित है। लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक, अनुभूतिमय अभिव्यंजना का चित्रण लोकगीतों व लोककथाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। लोकसाहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता-धड़कता है। वहां की प्रकृति उसके संग स्वयं गुनगुनाती है। लोकसाहित्य में निहित सौंदर्य का मू्ल्यांकन सर्वथा अनुभूतिजन्य है। लोकसाहित्य की महत्ता को हर वह व्यक्ति महसूस कर सकता है जो अपनी उस लोक संस्कृति, भाषा से जुड़ा होता है। यह जन्मजात अनुभूति अपनी माटी से वह ताउम्र अनुभव करता है। प्रदेश से बाहर विदेश में बैठा व्यक्ति जब अपने प्रदेश के लोकसाहित्य को पढ़ता है, वहां के लोकगीतों को सुनता है, तो उसे जो परमानंद प्राप्त होता है, वह उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। वह दूर होकर भी अपनी संस्कृति में स्वयं को लिप्त पाता है। लोक धरातल से उठने वाले इस साहित्य ने अपना एक शीर्षस्थ स्थान आज साहित्य में बना लिया है। लोकसाहित्य को वैदिक साहित्य के समकक्ष भी अगर मानें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रमाण के रूप में हमारे लोक जीवन के बहुत से और विशेषकर सांस्कारिक तथा धार्मिक कार्य वैदिक मंत्रों से ही पूरे होते हैं।

जहां ये मंत्र संस्कृत में पढ़े जाते हैं, वहीं गांव की स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले लोकगीत तथा लोकाचार पर आधारित क्रियाकलाप भी अंग-संग साथ चलते हैं। मुंडन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों पर लोकगीत, धार्मिक गीत, पर्वों के गीत, कामकाज के दौरान गाए जाने वाले श्रम गीत, मेला गीत आदि कहीं न कहीं लोकसाहित्य का ही अटूट अंग होते हैं। शोध कार्यों की अगर बात की जाए तो संभव है बहुत सारे शोध कार्य आज मात्र डिग्री तक ही सीमित रह गए हैं। आज विश्वविद्यालयों में खूब शोध कार्य करवाए जा रहे हैं। इन शोध कार्यों की सूची पर नजर डालें तो बहुत सारे विषय एक-दूसरे से मिलते या तुलनात्मक अध्ययन तक ही घूमते पाए जाते हैं। आज न तो शोधार्थी मेहनत करना चाहते हैं और न ही विषय विशेषज्ञ उनसे मेहनत करवाना चाहते हैं। आसानी से जो शोध हो जाए, जल्दी से जो शोध हो जाए, ऐसे विषय शोधार्थियों को दे दिए जाते हैं। प्रदेश में रहने वाले शोधार्थी ही अपने प्रदेश के साहित्य, लोकसाहित्य, भाषा व संस्कृति, ऐतिहासिक-धार्मिक, पौराणिक धरोहरों पर कार्य नहीं करते हैं। अगर प्रदेश में रहने वाले ही ऐसे विषयों पर शोध नहीं करेंगे, तो फिर कौन करेगा? कट, कॉपी, पेस्ट की पीएचडी से बेहतर है कि ऐसे शोध कार्य न हों। अगर शोध कार्य हों तो वे ऐसे हों जो आने वाली पीढि़यों के लिए, समाज के लिए मील-पत्थर हों। ऐसा नहीं है कि इन विषयों से संबंधित सामग्री नहीं मिलती है। निःसंदेह ऐसे विषयों पर प्रभूत सामग्री मिल जाती है, बस शोधार्थी में शोध करने का जज्बा हो। जहां पुस्तकालयों में बैठ कर शोध करना बहुत सरल होता है, वहीं धरातल पर जाकर उन्हीं क्षेत्रों में व्याप्त लोकसाहित्य, लोकसाहित्य की भाषा एवं संस्कृति का अवलोकन व शोध करना बहुत मुश्किल होता है। साहित्य के अध्यापकों, शोधार्थियों से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे कम से कम अपने-अपने राज्य के साहित्य, लोकसाहित्य, भाषा, संस्कृति को परचें, परखें और सहेजें।

अपनी इस विरासत को सहेजना और फिर उसे आगे आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में देना, अपने शोध के रूप में यही सच्चा कर्म और साहित्यिक सेवा है। अगर लोकसाहित्य व लोक संस्कृति बचेगी, तभी हम लोगों का भी अस्तित्व बचेगा अन्यथा पाश्चात्य संस्कृति की हवा सब कुछ अपने साथ उड़ा कर ले जाएगी। संक्षेप में हिमाचली लोकसाहित्य के जिन विषयों का शोधपरक अध्ययन हो चुका है, उनको सम्मुख रखते हुए उनमें जो कुछ अछूता रह गया है, उसे ढूंढने, चर्चा करने की आवश्यकता है, न कि पूर्णकालिक शोध विषयों की पुनरावृत्ति या उनमें आंशिक फेरबदल कर पुनर्प्रस्तुति का प्रयास हो। प्रदेश में लोकसाहित्य का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। अनेक भाषा-बोली रूप तथा सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताएं भी हैं, अनेकता में एकता भी है, उसे ही तलाश करना और परंपरित लोकसाहित्य की खूबियों को रेखांकित करना शोध का मुख्य उद्देश्य है, उसी से उसका महत्त्व प्रतिपादित होता है। मैं यहां यह भी कहना चाहती हूं कि कुछ लोग लोकसाहित्य को साधारण, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों का केवल मनोरंजन हेतु सृजित मौखिक साहित्य मानते हैं। परंतु इसका गंभीरता से अध्ययन करें तो इसमें वैसी ही विशेषताएं मिलती हैं, जो शिष्ट साहित्य में मिलती हैं।


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