मानवीय मूल्यों का संरक्षण करती लोक संस्कृति

By: प्रो. सुरेश शर्मा Nov 8th, 2020 12:07 am

मो.- 9418130860

विमर्श के बिंदु

 अतिथि संपादक:  डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -6

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी छठी किस्त…

प्रो. सुरेश शर्मा

मो.-9418026385

लोक संस्कृति की विशेषता है कि यह निरंतर, स्वच्छंद तथा अविरल होकर बहती रहती है। जिस प्रकार नदी का जल सदियों से बिना रुके प्रवाहित होता रहता है, उसी प्रकार संस्कृति की अविरल धारा भी निरंतर बहती रहती है। संस्कृति और नदी में निरंतरता, निर्मलता तथा गतिशीलता होने के कारण यह गुण भी आत्मसात करती हैं कि जब-जब भी ये मनुष्य की मनमानी, स्वार्थी सोच तथा भौतिकवादी दृष्टि से मलीनता के कारण प्रदूषित हुई, यह निरंतर परिशोधन करती रहती हैं। भारतीय इतिहास में अनेकों बार सांस्कृतिक आक्रमण होने से संस्कृति प्रदूषित हुई, लेकिन फिर भी यह अपना आत्म-शोधन कर लेती है क्योंकि इसमें निरंतरता, गतिशीलता तथा आत्म-अनुशासन का गुण विद्यमान है।

दुनिया में कभी किसी भी देश को जब आक्रमणकारियों ने अपना दास बनाया तो सबसे पहले उस देश की संस्कृति पर हमला किया। भारतवर्ष भी अनेकों सांस्कृतिक आक्रमणों का शिकार हुआ, लेकिन हमारी सांस्कृतिक विरासत में सुरक्षित और संरक्षित रखने की क्षमता है। हम कई बार भौतिकवादी मानसिकता से प्रेरित, प्रभावित एवं भ्रमित हुए हैं, लेकिन हमारी सांस्कृतिक धरोहर ने हमें कभी भी डिगने तथा पथभ्रष्ट होने नहीं दिया। व्यक्ति हमेशा अपने सांस्कृतिक वातावरण के खुलेपन में सांस लेना चाहता है। यह सांस्कृतिक परिवेश उसे भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करता है। अपना रहन-सहन, खानपान, परिधान, परिवेश, रीति-रिवाज, संस्कार, परंपराएं, मान्यताएं, विश्वास, अंधविश्वास, धार्मिकता, आचार-व्यवहार, विचार, मानवीय मूल्य, बोलियां, भाषाएं, आस्थाएं, लोक परंपराएं, लोक मान्यताएं तथा लोक दर्शन किसे अच्छा नहीं लगता? इसी को सांस्कृतिक परिवेश कहते हैं। जब यह जनमानस के द्वारा अपनाया जाता है तो इसी परिवेश में लिप्त जीवन शैली को लोक संस्कृति कहा जाता है। संस्कृति लोक गीतों, लोक नाटयों, लोक कलाओं, लोक परंपराओं, लोक मान्यताओं, लोक शैलियों, लोक गाथाओं, लोक वाद्यों, लोकसाहित्यों, लोक नृत्यों, लोक व्यवहारों, विभिन्न प्रवृत्तियों तथा व्यापक अर्थों में जीवन के अनेक तत्त्वों का बोध कराती है। लोक संस्कृति लोगों के अनुभव तथा पीढ़ी दर पीढ़ी द्वारा श्रुति परंपरा से स्थानांतरित होती है तथा जीवन व्यवहार के मार्ग पर विचरण करती है। संस्कृति व्यापक एवं अवर्णीय है जिसे किसी परिभाषा की शब्दावली में नहीं बांधा जा सकता। लोक संस्कृति हमारे जीवन का प्रतिबिंब है। इसके दर्शन में जो वास्तविकता है, वही इसके दर्पण में दिखाई देता है।

यह हमारे जीवन की सादगी को बिना किसी बनावट या लाग-लपेट तथा सरलता से व्यक्त करती है। यह जनसाधारण में बहुत ही सरलता, बिना ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट तथा स्वार्थ से यह लोगों में स्थान बना लेती है। यह हमेशा जीवंत रहती है, इसलिए इसे लोक संस्कृति कहा जाता है। लोक संस्कृति समाज में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। मानवीय मूल्य किसी भी समाज के उद्देश्यों तथा लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं। मानवीय मूल्यों का तात्पर्य किन्हीं भौतिक वस्तुओं की कीमत से नहीं, बल्कि मनुष्यों के आचरण, व्यक्तित्व, कार्यों, सोच-विचार, व्यवहार, संस्कार तथा जीवन दर्शन से है। जीवन मूल्य किसी व्यक्ति, व्यक्तियों, सामाज के आचार-व्यवहार तथा आचरण की गुणवत्ता को प्रकट करते हैं। मानवीय मूल्य मूर्त और अमूर्त होते हैं। अमूर्त मूल्यों को सीखना नहीं पड़ता तथा वे शाश्वत होते हैं।

इन शाश्वत मूल्यों में सत्य, प्रेम, शांति, अहिंसा तथा दया हैं जो प्रत्येक काल में जीवित रहते हैं। इसके साथ ही सामाजिक मूल्य, मानवीय मूल्य, नैतिक मूल्य, सौंदर्यात्मक मूल्य, मनोवैज्ञानिक मूल्य, न्यायिक मूल्य, राजनीतिक मूल्य तथा व्यावसायिक मूल्य समय, स्थान, व्यक्ति तथा समाज के साथ-साथ बदलते रहते हैं। मनुष्य की शिक्षा, संस्कार तथा संस्कृति किसी भी व्यक्ति के आचरण को नियंत्रित करते हैं। यही आचरण हमारे जीवन मूल्यों तथा संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। इसलिए स्वच्छ, स्वच्छंद सांस्कृतिक परिवेश एवं सुसंस्कारों का व्यक्ति की परवरिश में अपना ही महत्त्व होता है।

मनुष्य का व्यवहार, दया, धर्म, दान, तप, ध्यान, भक्ति, ज्ञान, सतकर्मों, संस्कृति तथा मानवीय मूल्यों से प्रभावित रहता हैं एवं मनुष्य को स्वच्छंद एवं विकार रहित जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। हमारी लोक संस्कृति में विभिन्न मान्यताएं, विचार, परंपराएं तथा प्रचलित कथाएं भी इन मानवीय सुसंस्कारों से प्रेरित एवं प्रभावित हैं। लोक संस्कृति में हमारे जन्म से पूर्व तथा मृत्यु उपरांत संस्कार हमें भावनात्मक, संवेगात्मक, सहयोगात्मक एवं संगठनात्मक सुरक्षा प्रदान करते हैं। संस्कृति सह-अस्तित्व को स्वीकार कर सभी के सुख-दुख में भागीदार बनने की प्रेरणा देती है। वर्तमान भौतिकवादी संस्कृति से इन तत्त्वों का पतन हो रहा है। सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों से युक्त जीवन कोई पिछड़ापन या मानसिक संकीर्णता नहीं है।

मानवीय तथा सामाजिक मूल्य परस्पर प्रेम, सहयोग तथा सह-अस्तित्व को स्वीकारते हैं। ये जीवन वृक्ष की जड़ें हैं जिन्हें संस्कारों तथा मानवीय मूल्यों से निरंतर सिंचित किया जाना चाहिए। संस्कार रहित एवं मूल्य विहीन व्यक्ति जीवन पथ पर भटक सकता है। भारतीय दर्शन से प्रभावित संस्कृति में पंच तत्त्वों को जीवन का कारक एवं आधार माना जाता है। इन तत्त्वों में अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी तथा जल को मनुष्य जीवन का वैज्ञानिक दृष्टि से भी आधार माना गया है।

हमारी संस्कृति में अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल तथा आकाश को देवता मानकर पूजा की जाती है। भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान कभी भी इन पांचों तत्त्वों के आह्वान के बिना संपूर्ण नहीं होते। भोग-विलास, उपभोक्तावादी तथा भौतिकवादी संस्कृति ने हमें स्वार्थी, लोभी तथा संकीर्ण बना दिया है। हमारी संस्कृति ने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ तथा ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की विशाल दृष्टि एवं परिकल्पना की है। हमारी संस्कृति विशाल तथा कल्याणकारी है। यह मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित, प्रतिबिम्बित, सुरक्षित कर संवर्धन करती है।

उपर्युक्त सांस्कृतिक विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में यदि हिमाचल प्रदेश की लोक सांस्कृतिक धारा के अविरल प्रवाह का मंथन करें तो हमें इन सारी विशिष्टताओं को देखने-पहचानने के अवसर मिलते हैं। यही हमारा गौरव है, पहचान है। यहां के लोक संगीत में इसके नाद, सुर सौंदर्य की विविधता, लोक गीतों में भाव-भाषा, लोक नृत्यों में भाव-भंगिमाओं के यहां की बोलियां, भाषा रूप संवाद करते, विमोहित करते हैं।


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