पुस्तक समीक्षा : प्रीतिपूर्वक नीति का आलोक ‘रामराज्य’

By: आशुतोष गुलेरी, गुलेर, कांगड़ा Nov 8th, 2020 12:05 am

समाज की दशा और दिशा निर्धारित करने में साहित्य की उपादेयता निर्विवाद है, बशर्ते कि लेखन सार्थक एवं शिक्षाप्रद संदेश देने को उद्यत हो। संदर्भनीय लेखन के लिए सृजन का विषय तथा वैचारिक-बिंदु सशक्त होना अत्यंत आवश्यक है और इस कसौटी पर यह सद्यप्रकाशित पुस्तक ‘रामराज्य’ खरी उतरती है।  राम की दिव्यता, अलौकिकता, चरित्र-संपन्नता तथा मर्यादा पर अनेक ग्रंथ कहे गए, सबकी अपनी विशेषता है, परंतु इन सबसे अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की आतुरता ‘रामराज्य’ में स्पष्ट परिलक्षित होती है। रामकथा में बालकांड को महत्त्व न देकर, कैकेयी को महत्त्व देना जिज्ञासा उत्पन्न करता है।

रामायण के इस चरित्र के प्रति समाज में व्याप्त आदर विपन्नता के ऐतिहासिक विषकंटकों के समूल विनाश की यह साहसिक पहल है। सुर-असुरों के पौराणिक भेद को परिवर्तित करने का साहस जुटाते हुए, उपभोक्ता और उपयोगितावाद का अवगुंठन खोलने का भी लेखक ने भरसक प्रयास किया है। प्रगतिवाद के वस्तुतः स्वरूप पर राम-कैकेयी संवाद की प्रतिछाया में ‘साधन संपन्न होने से अधिक साधना संपन्न नागरिकों की आवश्यकता’ जैसे तर्क और युवावस्था में ‘अनुशासन’ को ‘उपलब्धि का साधन’ बताकर समाज को सार्थक संदेश देने में लेखक सफल प्रतीत होता है। बालकों के चरित्र निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका में मां के अकथ्य दायित्वों को भी प्रकाशित किया गया है।

रामायण की घटनाओं तथा परिस्थितियों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर लेखक इतिहास के झरोखे से अनेक शिक्षाएं संजोकर वर्तमान का पथ प्रदर्शित करने का प्रयास करता है। शूर्पणखा के नाक और कान कटने के संदर्भ को तार्किक दृष्टि से खंडित करते हुए नवीन दृष्टिकोण स्थापित करने का बड़ा भारी जोखिम उठाया गया है। अंत में आपकी धार्मिक बुद्धि उसे अस्वीकार भी करना चाहे, लेकिन लेखकीय आत्मावलोकन को खारिज नहीं कर पाएगी। कुंभकर्ण और उसके यांत्रिकी-शोध के पक्ष का उद्घाटन त्रेतायुग में ज्ञान की पराकाष्ठा को रेखांकित करने का प्रयास करता है, परंतु लेखक दोनों पक्षों को संतुलित भाव से अभिव्यक्त करते हुए राम की गवेषणात्मक बुद्धि को भी परिलक्षित करने से नहीं चूकता।

‘सीता परित्याग’ खंड में राम के एक निर्णय ने सीता के चरित्र पर छोड़े गए दुर्मुख के वाग्बाणों का मुख किस प्रकार निज-भर्त्सना में परिवर्तित करके अपनी ओर मोड़ लिया, पठनीय एवं मननीय बन पड़ा है। ‘रामराज्य’ अनेक मायनों में महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। आस्था की यात्रा को ज्ञानगम्य तर्क की बोतल में उतारना और फिर उस पर तर्क की खुली बोतल को भवसागर में तैरा देना, यह जोखिम भरा काम लेखक ने कर दिखाया है। बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्धों, शिक्षकों, विचारकों या फिर यूं कहें कि समाज के प्रत्येक ज्ञानार्थी को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।

पुस्तक में इक्का-दुक्का टंकण की त्रुटियों को छोड़कर आलोचनात्मक कुछ नहीं मिलेगा। दिनेश शर्मा ने पुस्तक के आवरण में प्राण डाल दिए हैं। हार्डकवर में पुस्तक का प्रिंट आनंददायक है, पेपर और प्रिंटिंग की गुणवत्ता उत्कृष्ट है। प्रकाशक कौटिल्य बुक्स, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक आशुतोष राना हैं जिसका मूल्य 500 रुपए रखा गया है।

-आशुतोष गुलेरी, गुलेर, कांगड़ा


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