समय और समाज का भाष्य विजय विशाल की कविताएं

By: शशि कुमार सिंह, अंडेमान निकोबार Nov 8th, 2020 12:06 am

‘चींटियां शोर नहीं करतीं’ विजय विशाल का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है। यह सच है कि चींटियां शोर नहीं करतीं, पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि अनेक ऐसे रचनाकार भी हैं जो बेहद खामोशी से रचनारत रहते हैं। वे भी शोर नहीं करते। विजय विशाल ऐसे ही रचनाकार हैं जो शहरी चकाचौंध से दूर हिमाचल के पहाड़ी गांव में मौन कवि-कर्म में विश्वास रखते हैं। इस संग्रह की कविताओं से गुजरना एक रोचक यात्रा की तरह है। इन कविताओं का वैविध्य विस्मित करता है। समय और समाज का शायद ही कोई पहलू हो जो इन कविताओं में न सिमट आया हो। यहां मजदूर हैं। किसान हैं। शासक हैं। छात्र हैं। बेरोजगार हैं। स्त्रियां हैं। बुजुर्ग हैं। बच्चे हैं।

पहाड़ हैं। पहाड़ के संघर्ष हैं। गांव हैं। लोक संस्कृति है। शहरीकरण है। उसकी विकृतियां हैं। यानी यह संग्रह वर्तमान का विराट एलबम है। इस संग्रह की कविताएं श्रम के सौंदर्य की कविताएं हैं। यहां श्रमिक हैं। उनके श्रम की महत्ता है। साथ ही उनका अस्थायित्व और शोषण भी। कवि को मजदूरों का श्रम चुरा लिए जाने की चिंता है। एक काम पूरा होते ही मजदूरों को नए काम की तलाश में भटकना पड़ता है। लेकिन विजय विशाल मजदूरों की जिजीविषा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, ‘न मधुमक्खियां हार मानती हैं, न मजदूर काम तलाशना छोड़ते हैं, इनकी यह जिजीविषा ही बचाए रखती है पृथ्वी पर सृजन की संभावनाओं को।’ श्रम और श्रमिक के प्रतीक के रूप में विजय विशाल प्रकृति के बीच से ही उपमान चुनते हैं। मधुमक्खी के अलावा चींटी उन्हें निरंतर श्रम करती तथा औरों को प्रेरित करती हुई जान पड़ती है। यह अकारण नहीं है कि पहली कविता में मधुमक्खी आती है और अंतिम में चींटी। मधुमक्खी और चींटी से मिलकर श्रम का ऐसा वितान निर्मित होता है जिसमें कर्म-श्रम की पूरी गाथा है। संग्रह के शीर्षक वाली कविता भी श्रम के सौंदर्य की कविता है। मौन श्रम की। ‘एक साथ एक जगह इकट्ठा होने पर भी चींटियां शोर नहीं करतीं, न जुबान से न कदमों की थाप से, चींटियां सिर्फ कर्म करती हैं, अपनी पूरी लगन से।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि यहां चींटियां श्रमिक हैं। मजदूरों की एकता और तदुपरांत उनकी जीत में कवि को विश्वास है, ‘आकार में छोटी चींटियों से डरते हैं विशालकाय हाथी भी, हाथियों का चींटियों से यूं डरना चींटियों की जीवंतता का प्रमाण है।’

यह जिजीविषा और जीवंतता इस संग्रह में सर्वत्र विद्यमान है, ‘यह भरोसा ही तो है जिसके सहारे हर तबाही के बाद भी उठ खड़ा होता है आदमी।’ श्रम के प्रति रुझान की वजह से ही कवि सौंदर्य के प्रतिमानों पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। ‘बया का घोंसला’ ऐसी ही कविता है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां पढ़कर मुक्तिबोध के संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की याद आ जाती है। कवि की दृष्टि में सुंदर इमारत ‘बया का घोंसला’ है क्योंकि वह श्रम से निर्मित है। उसमें विलासिता का अंश नहीं है। इसी तरह संग्रह की अन्य कविताएं भी रोचक हैं तथा सामाजिक संदेशों से भरपूर हैं। कलात्मकता की खोज करने वाले पाठक इस संग्रह से थोड़े निराश भी हो सकते हैं। सीधे-सरल शब्दों में कवि ने अपनी बात कही है। यह सादगी ही इस संग्रह की पहचान है। कवि का ध्यान कथ्य पर अधिक रहा है। कथ्य की ताजगी और शिल्प की सादगी इस संग्रह का वैशिष्ट्य है।

-शशि कुमार सिंह, अंडेमान निकोबार


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